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________________ आचार्य श्री : एक मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शक - -- - Hima - - n s.-- -. -- - श्रीलाचन समय-समय पर संसार में ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया है, जिनकी आध्यात्मिक ऊँचाई मानवता की सामान्य सतह से बहुत ऊंची रही है। आचार्यप्रवर के जीवनदर्शन को समझना हर किसी के लिए संभव नहीं है। उन्होंने इस समूचे विश्व के समक्ष आधुनिक युग में इतना महान् जीवन जीकर दिखा दिया कि उसका विश्लेषण करना || मनीषियों के लिए भी एक अबूझ पहेली के समान है। उनके सम्पर्क में जैन-अजैन सभी प्रकार के व्यक्ति आते थे। वे अपनी दिव्य मेधा से प्रत्येक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को पढ़ लेते थे। उसकी कमियों को तुरन्त जानकर उन्हें दूर करने के प्रयास में लग जाते थे। वे जानते थे कि कोई भी व्यक्ति एकदम अध्यात्म की ओर आकर्षित नहीं होता, व्यक्ति को धीरे-धीरे अध्यात्म के आनन्द का। अनुभव आता है, इसके लिये स्वाध्याय ही ज्ञानार्जन का एक ऐसा माध्यम है जिसे अपनाकर व्यक्ति अपनी | आध्यात्मिक ऊँचाइयों को अर्जित कर सकता है। वे स्वाध्याय के अन्तर्गत धर्मग्रन्थों को पढने के लिये प्रेरित करते थे। उनका इस संबंध में गहन अनुभव था। | कि यदि व्यक्ति में प्रतिदिन कुछ अध्ययन करने की आदत विकसित हो गई तो शनै: शनै: वह सन्मार्ग की ओर । आकृष्ट हो जायेगा और उसकी अधिकतर विपदाएँ स्वत: ही समाप्त हो जायेंगी। जब व्यक्ति १०-१५ मिनट के लिये भी पढ़ने बैठता है तो घंटा आधा घंटा बीत जाना मामूली बात है। स्वाध्याय का चस्का जब व्यक्ति को लग जाता है तथा उसी बीच यदि सौभाग्य से गुरुदेव के दर्शन का और लाभ प्राप्त हो जाता है तो वे सबसे पहले यही पूछते कि भाई आपका स्वाध्याय कैसा चल रहा है? जब साधक बताता | कि भगवन् आपने तो मुझे १०-१५ मिनट स्वाध्याय का कहा था, परन्तु मैं पढ़ने बैठता हूँ तो एक घंटा कब बीत || जाता है, पता ही नहीं लगता। तब आचार्य प्रवर फरमाते थे कि भाई जब तुम एक घंटे तक पढते रहते हो तो एक घंटे से भी कम समय ४८ | मिनट में एक सामायिक हो जाती है, फिर सामायिक पूर्वक स्वाध्याय क्यों नहीं करते ? उनकी यह बात श्रावक या श्राविका के गले उतर जाती थी। इस प्रकार वे अपने भक्तों को सामायिक के | मार्ग की ओर आकर्षित कर लेते थे। अब चारित्र चूडामणि संतप्रवर को अपने भक्त के लिये कुछ करना शेष नहीं रहता था। वह अपने आप |आचार्य श्री की ओर खिंचा हुआ चला आता था। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है. गढ़ी गढ़ी काढ़त खोट। अन्तर हाथ सहार द, बाहर मार चोट। _वे पंच महाव्रतधारी थे । अनुयायी को अणुव्रत के पालन हेतु तैयार करने में वे दक्ष थे। श्रावक को अध्यात्म | के पथ पर कैसे आगे बढ़ाना, इसमें गुरुदेव सिद्धहस्त थे। आचार्य श्री को उनकी इसी मनोवैज्ञानिक शैली ने विश्व | के महान् संत के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। __ वे पढ़े-लिखे नौकरी पेशा व्यक्तियों की अच्छी पकड़ जानते थे । उनकी इस ज्ञान-शक्ति को वे )
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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