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________________ आश्चर्यों का आश्चर्य श्री कस्तूरचंद सी. बाफणा जन्म से लेकर स्वर्गवास तक आचार्य हस्ती के जीवन पर दृष्टिपात करें तो लगता है आचार्यश्री का जीवन | आश्चर्यों का आश्चर्य है। उनके मुखारविन्द से निकला हर शब्द, मंत्र व उनके द्वारा किया गया हर काम चमत्कार है । | दस साल की लघु वय में पंच महाव्रत धारण करना कम आश्चर्य की बात नहीं। संयम लेते ही शास्त्रीय ज्ञान हृदयंगम कर तदनुसार अपने जीवन को ढालना 'समयं गोयम मा पमायए' 'तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं' ये पंक्तियां न केवल पढ़ी, सोची, समझी, बल्कि आजीवन इनका निरतिचार रूप से पालन किया। किसी भी अवस्था, यहां तक कि | बीमारी अवस्था में भी प्रमाद को पास में नहीं आने दिया । सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बहुत ही व्यस्त व नियमित कार्यक्रम रहता था। कोई कितना ही बड़ा आदमी आता, तो भी अपने कार्यक्रम में हेरफेर या ढिलाई कभी नहीं की । शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने डिग्रियाँ नहीं ली, पर डिग्रियाँ प्राप्त करने के इच्छुक इनके पास आते थे | ज्ञान-प्राप्ति के लिए। एक बार शेखेकाल भोपालगढ में विराजते हुए व्याख्यान का विषय 'विनय' लिया, जिसका विवेचन निरंतर पन्द्रह दिनों तक ऐसा किया कि विद्यालय के शिक्षक आश्चर्यचकित हो गए हिन्दी, संस्कृत व प्राकृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे गुरुवर । पन्द्रह वर्ष की लघु अवस्था में गुरु द्वारा आचार्य मनोनीत होना व बीस की अल्पायु में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होना विश्व कीर्तिमान था । इकसठ साल तक | जिस कुशलता से संघ का संचालन किया अपने आप में एक रेकार्ड है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम की | मस्ती को बरकरार रखा । अपनी संयम साधना की तेजस्विता दिन-प्रतिदिन बढ़ाई। अनेकों के जीवन को बनाकर उन्हें रज से रजत, कंकर से शंकर व पतित से पावन बनाया। कइयों के जीवन को बचाया। वे परम्परा के प्रति बहुत निष्ठावान थे । पूर्वाचार्यों के प्रति अगाध श्रद्धा थी । मौन साधना के प्रबल पक्षधर । फलस्वरूप उन्हें वचनसिद्धि प्राप्त थी । जीवन भर अल्पभोजी व अल्पभाषी रहे। कद छोटा, पर पद मोटा था । लघुता में प्रभुता छिपी थी। अपने नाम का प्रदर्शन कभी नहीं किया उन्होंने । हर भक्त गुणगान करता, पर अभिमान छू तक नहीं पाया। नर रत्नों के पारखी थे। किसमें कितनी व क्या योग्यता है, समझने में देर नहीं लगती थी उन्हें । उपकारी गुरुदेव सन् १९८३-८४ की बात अकस्मात् मेरे पूरे परिवार पर भारी देवी प्रकोप । कपड़े फटना, दागीने व रुपये गायब हो जाना, भाइयों में अनबन, घर में पूरी अशांति का वातावरण । पुत्रवधू जो भी साड़ी पहनती, पहनते ही फट जाती । परिवार में शांति व चैन का नाम नहीं। पागल सा हो गया था मैं। शरीर में जान होते हुए भी बेजान । सोचने समझने की शक्ति नहीं रही । मेरा पोता नया बच्चा, पहले दिन घर आते ही उसके गले में से सोने की चैन गायब । उसके शरीर को काटा जा रहा है, बच्चा बे हिसाब रो रहा है। ऐसी स्थिति में मुझ पर क्या बीती, मैं ही जानता हूँ । सन् १९८५ का भोपालगढ में चातुर्मास । घर में चल रही अशांति से मैं व्यथित था। एक दिन मुनि श्री हीराचन्द्रजी 'वर्तमान आचार्य श्री' को अपनी कथा सुनायी। उन्होंने कहा संकट मोचक के रहते क्यों भुगत रहे हो, | आचार्य श्री से बात कर लो। दूसरे दिन सुबह आचार्य श्री एक कमरे में स्वाध्याय कर रहे थे। हिम्मत नहीं हो रही थी उनके पास जाने की । कैसे जाऊँ ? क्या कहूँ ? परोक्ष शक्ति आगे बढ़ने नहीं दे रही थी मुझे। बहुत सा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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