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________________ सच्चे निस्पृही एवं उदारहदय आचार्य श्री . श्री सम्पन राज डोसी आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. की आत्मीयता एवं कृपा से मैं आज भी अभिभूत हूँ। आपकी प्रेरणा से सन् १९७० में स्वाध्याय संघ से जुड़ा। इस कार्य में मुझे स्वाध्यायियों से सम्पर्क का अवसर मिला तथा अनेक नये अनुभव हुए। स्वाध्याय-संघ के संयोजक के रूप में कार्य करते हुए आचार्यप्रवर के निकट सान्निध्य से मैंने यह अनुभव किया कि स्वाध्याय आचार्यप्रवर की प्रेरणा का मुख्य विषय होने पर भी उन्होंने स्वाध्याय-संघ की गतिविधियों के संचालन में कभी किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। चाहे क्षेत्रों की मांगों का विषय हो, चाहे स्वाध्यायियों से सम्पर्क करना हो, स्वाध्यायियों के लिए आवश्यक साहित्य का प्रकाशन कराना हो अथवा स्वाध्यायी-शिविरों का आयोजन करना हो, आचार्यप्रवर ने कभी किसी प्रकार की प्रेरणा नहीं की। आचार्य प्रवर की इस प्रपंचविहीनता के कारण स्वाध्याय-संघ का कार्य साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर संचालित हो सका। स्वाध्याय संघ की प्रवृत्ति की आवश्यकता और उपयोगिता का अनुभव करते हुए सारे जैन समाज ने इस प्रवृत्ति को अपनाया और एक - एक करके अनेक स्वाध्याय-संघ खुलते गए तथा स्वाध्याय-संघों की गूंज सारे भारत में फैल गई। नये स्वाध्याय-संघों में स्वाध्याय-संघ गुलाबपुरा और स्वाध्याय संघ जोधपुर के अनुभवी स्वाध्यायियों को अपनी ओर खींचने की प्रवृत्ति बढ़ी। स्वाध्याय-संघ जोधपुर के अनेक अनुभवी स्वाध्यायी नये - नये स्वाध्याय-संघों में जाने लगे, परन्तु आचार्यप्रवर ने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि डोसी यह क्या हो रहा है? इसके विपरीत पीपाड़ के चातुर्मास में एक बार स्वाध्यायी शिविर में आचार्य श्री ने मुझे तथा सभी स्वाध्यायियों को यह नियम दिलाया कि किसी भी अन्य स्वाध्याय-संघ के स्वाध्यायी को इधर खींचने का प्रयास नहीं करें। हो सके उतनी पूर्ति नये स्वाध्यायी बनाकर ही करें। यह उस महापुरुष की निस्पृहता और उदारता का एक आदर्श क्रियात्मक रूप था। श्रावण अथवा भाद्रपद माह दो होने पर कई क्षेत्रों में द्वितीय श्रावण तथा कई क्षेत्रों में भाद्रपद में पर्युषण | मनाने का प्रसंग आया। तब स्वाध्याय-संघ द्वारा दोनों पर्युषणों में स्वाध्यायी भेजे गए। इसी प्रकार कभी संवत्सरी को चतुर्थी अथवा पंचमी का भेद हो जाता तो बिना किसी आग्रह के क्षेत्र विशेष के श्रावक संघ की भावना के अनुरूप चतुर्थी या पंचमी को स्वाध्यायियों द्वारा संवत्सरी मनायी गयी। इस प्रकार के विवादास्पद विषयों में नीति-निर्देश हम उसी महापुरुष की उदारता से लेने में समर्थ हुए। स्वाध्यायियों के प्रति आचार्यप्रवर का सहज स्नेह था। वे उन्हें स्वाध्याय की प्रवृत्ति को अपनाने के साथ जीवन में साधना को भी स्थान देने की प्रेरणा करते थे। स्वाध्याय की प्रवृति को असाम्प्रदायिक रीति से प्रमुखता देने के कारण आचार्य श्री स्वाध्याय के पर्यायवाची समझे जाने लगे। जब भी स्वाध्याय शब्द का उच्चारण सुना जाता, आचार्य श्री की छवि मस्तिष्क पर अंकित हो जाती। सच्ची निस्पृहता एवं उदारता के धनी उन आचार्यप्रवर को मेरा शत शत वन्दन। -संगीता साड़ीज, डागा बाजार, जोधपुर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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