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________________ (तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५९५ जुटाकर कमरे का दरवाजा खोला। आचार्यश्री स्वाध्याय में मग्न थे। वंदना अर्ज कर अत्यन्त दर्द के साथ बोला - गुरुदेव ! मैं बहुत कष्ट में हूँ आप मेरा कष्ट निवारण करें। कुछ नहीं बोलते हुए सिर्फ मेरे सामने देखा। मैं कमरे से बाहर निकल आया। मेरी अतरंग व्यथा व कष्ट को जान गए थे। उसी दिन मेरे कष्ट निवारण की बात मन में ठानी। उन्होंने क्या किया, मुझे कुछ नहीं मालूम, पर कष्ट निवारण कर दिया। वह देवी प्रकोप जिससे मैं दो साल से ज्यादा समय तक पीड़ित रहा, नानाविध उपायों से भी कुछ नहीं हो सका। ऐसा भयंकर देवी प्रकोप साधनाशील व्यक्तित्व के प्रताप से ही शांत हो सकता है। उन्होंने मुझे और मेरे परिवार को जीवनदान दिया। सचमुच इस जग का गरल पीने वाले महादेव थे वे । जन्म-जन्मों तक मैं उनके उपकार के प्रति ऋणी रहूँगा। अन्तर्मन के ज्ञाता - अंतर्मन के भावों को जानने की अद्भुत क्षमता थी उनमें। आचार्यश्री भोपालगढ | पधारे। करीब सप्ताह भर ठहरने के बाद एक दिन मुझे कहा कि कोसाना वालों को संदेश दे देना। मैंने सोचा कि कोसाना वालों को संदेश दे दिया तो वे लोग विनति कर आचार्यश्री को कोसाना जरूर लेकर जायेंगे। अत: संदेश न दूंगा तो वे लोग विनति हेतु नहीं आयेंगे और आचार्यश्री भोपालगढ़ ज्यादा रुक सकेंगे। यह बात मैंने किसी को नहीं बतलायी। दूसरे दिन सुबह दर्शन हेतु गया तो जाते ही आचार्यश्री ने कहा-भावनावश कोसानावालों को सन्देश नहीं दिया। घर का अफसर होता है तो ऊपर की फाइल नीचे और नीचे की फाइल ऊपर कर देता है। मुझे आश्चर्य लगा कि मेरे मन की भावना उन्होंने कैसे जानी? __ कृपादृष्टि - विद्यालय के पदाधिकारियों के चुनाव की मीटिंग में मुझे कोषाध्यक्ष मनोनीत किया गया। मैंने सोचा, मुझे बिल्कुल अनुभव नहीं है। मैं यह काम कैसे संभाल पाऊंगा? जिम्मेदारी मिलने पर विपरीत परिस्थितियों में भी कोषाध्यक्ष व मंत्री के रूप में पन्द्रह साल तक जो कार्य सेवा मुझसे हुई , मैं आचार्यश्री की कृपा ही मानता हूँ। विद्यालय पर गुरुदेव की परम कृपा थी। आचार्यश्री फरमाते थे कि विद्यालय आदमी बनाने की मशीन है, उन्हीं की कृपा के कारण अनेक उतार चढ़ाव आने के बावजूद यह विद्यालय सुदीर्घकाल से गतिमान है। गुरुदेव के जहाँ भी चरण पड़ जाते, वह स्थान धन्य हो जाता। जंगल में भी मंगल हो जाता। टूटे दिल जुड़ जाते। छोटी सी लेखनी की क्या ताकत कि असीम आत्मशक्ति के धारी गुरुदेव के गुणों को लेखनी बद्ध कर सके, जितना लिखा जाय थोड़ा है। क्योंकि उनका हर शब्द मंत्र व हर कार्य चमत्कार था। -नयन तारा, सुभाष चौक, जलगाँव |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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