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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४३९ • जहाँ व्यवहार में कृत्रिमता है वहाँ निश्चय में भी कुछ गड़बड़ है। . चाहे लौकिक प्रवृत्ति हो अथवा आध्यात्मिक, उसके दो रूप स्पष्ट हैं एक व्यवहार और दूसरा निश्चय । निश्चय के लिए कोई समाज-व्यवस्था नहीं बनानी पड़ती, लेकिन व्यवहार के लिए समाज-व्यवस्था बनानी पड़ती है। निश्चय में जब प्रकाश पैदा हो जाता है तब वह दूसरों के चलाए नहीं चलता है, स्वचालित यंत्र की तरह चलता है। जब तक समाज और समाज के सदस्य जीवन-निर्माण के मार्ग में आगे बढ़ने में गति कर रहे हैं, मन की मलिनताएँ और विकार खत्म नहीं हुए हैं तब तक व्यवहार को भी पकड़ कर चलना होता है। जब उनका व्यवहार शुद्ध होता है, समाज का भी व्यवहार शुद्ध होता है। • आत्म शुद्धि हमारा निश्चय है । यह हमारा लक्ष्य है । जप, तप, सत्संग आदि धार्मिक प्रवृत्तियाँ जो हम करते हैं, इनका लक्ष्य जीवन में आत्मशुद्धि करना है। इन प्रवृत्तियों में चमक लाना निश्चय की भूमिका है और जब भूमिका यानी व्यवहार हमारा सुन्दर होगा, सुधरा हुआ होगा तो उससे शनै: शनै: गति करते-करते एक दिन हम निश्चय की ठीक स्थिति पर पहुँच जायेंगे। इसलिए साधकों के सामने यह विचार आया कि धर्म केवल सुनने की चीज नहीं है, आचरण की चीज है, अमली रूप में लाने की चीज है। व्यवहार करते समय यह जरूर देखना है कि व्यवहार निश्चय के अभिमुख हो, पराङ्मुख न हो। बाह्य क्रियाकाण्डों की अपेक्षा कषायों को जीतना अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें दो मत नहीं। किन्तु इससे बाह्य क्रियाओं की निरुपयोगिता सिद्ध करना ठीक नहीं। कषाय-विजय की इच्छा वाले साधक को तामसी भोजन के दष्टसंग से और दिमाग को गलत विचारों से बचाने का अभ्यास करना आवश्यक होगा। सात्त्विक आहार, ज्ञानवान् सज्जनों की संगति और शुभ कार्यों में जुड़ा रहना कषाय-विजय के अपेक्षित साधन हैं। • अर्जुनमाली जैसा तीव्र कषायी भगवान् महावीर की देशना का निमित्त पाकर, तप-त्याग की भावना से कषायों को जीत कर, वीतराग हो गया। सत्संग और बेले-बेले की तपस्या का व्यवहार उसे भी करना पड़ा। जिनशासन एकान्त व्यवहार या निश्चय का कथन नहीं करता। वह अपेक्षावादी-अनेकान्तवादी है। जिन-शासन में व्यवहार और निश्चय दोनों से कार्य की सिद्धि मानी गयी है। निश्चय से साध्य तक पहुंचने में व्यवहार साधन है। ज्ञान मिलाने को शिक्षक के पास जाना पड़ता है। समुद्र पार करने में नाव का आश्रय लेना होता है और रोग मिटाने की दवा खानी पड़ती है। दवा खाने से पूर्व रोग का परीक्षण भी किया जाता है, जो कि सब व्यवहार है। कार्य-सिद्धि में आवश्यक साधन मानकर इसे किया जाता है। वैसे ही कषाय-विजय के लिये, बाह्य क्रियाओं की भी आवश्यकता है। • चलने में जैसे दोनों पैर हिलाये जाते और दही-मंथन में दोनों हाथ आगे-पीछे रख कर डोरी खींची जाती है। मंथन के समय एक हाथ ढीला और दूसरा कड़ा रखने पर ही मक्खन प्राप्त होता है। दोनों हाथ छोड़ने या खींचने से काम नहीं होता। वैसे ही कल्याणकांक्षी जन को भी व्यवहार और निश्चय दोनों की आवश्यकता होती है। व्यवहार के पीछे निश्चय की और निश्चय की आड़ में व्यवहार की उपेक्षा करना भयंकर भूल होगी। निश्चय के आग्रह में व्यवहार का तिरस्कार करना सत्य का अपलाप करना और अपने आप को धोखा देना है। कारण कि सामान्य साधक व्यवहार के द्वारा ही निश्चय की ओर बढ़ता है, जबकि केवली का व्यवहार || निश्चयानुसार होता है। छद्मस्थ अपूर्ण ज्ञानी होने से निश्चय को बिना व्यवहार के नहीं समझ पाता और न
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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