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________________ ४४० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं आचरण में ही ला पाता है। अत: साधन की स्थिति में व्यवहार को त्याज्य नहीं, किन्तु उपादेय मानना चाहिये। यही शास्त्र का मर्म है। व्यसन अधिक से अधिक १०-१२ रोटियों से मनुष्य का पेट भर जाता है, मगर बीड़ी और सिगरेट पीते-पीते सन्तोष नहीं होता। • जिस मनुष्य का शरीर तमाखू के विष से विषैला हो जाता है उसका प्रभाव उसकी सन्तति के शरीर पर भी अवश्य पड़ता है। अतएव तमाखू का सेवन करना अपने ही शरीर को नष्ट करना नहीं है, बल्कि अपनी सन्तान के शरीर में भी विष घोलना है। अतएव सन्तान का मंगल चाहने वालों का कर्तव्य है कि वे इस बुराई से बचें और अपने तथा अपनी सन्तान के जीवन के लिये अभिशाप रूप न बनें। • व्यक्ति चोरी और व्यभिचार कब करता है और लड़के शराबी कबाबी कब बनते हैं? जब उनकी संगति खराब होती है। ब्राह्मणों और जैनों के घर में जन्म लेने वाले शराब और अभक्ष्य को कभी हाथ से छूते नहीं हैं, लेकिन खराब सौबत पड़ने से अच्छे घर के लोग अखाद्य पदार्थ खाने लगें, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। • चाय एक तरह का व्यसन है, यह खून को सुखाने वाली है, नींद को घटाने वाली है और भूख को भी कम करने वाली है। - व्रत • धर्म का उपदेश अन्तःकरण में जमने पर व्रत स्वीकार करने में देर नहीं लगती। • जब आप अहिंसा, सदाचार के मूलगुणों को अंगीकार करेंगे तो आपका जीवन भी निखरेगा और इन व्रतों के साथ तपस्या करेंगे तो ज्यादा चमकेंगे, ज्यादा तेजस्वी होंगे, ज्यादा ताकत या बल आएगा। भगवान महावीर ने यही शिक्षा दी है। • मुनिधर्म में सम्पूर्ण विरति का विधान है और गृहस्थ-धर्म में देशविरति का। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि साधु और गृहस्थ के धर्म में कोई विरोध नहीं है, वस्तुत: एक ही प्रकार के धर्मों के पूर्ण और अपूर्ण दो स्तर हैं। साधु भी अहिंसा का पालन करता है और गृहस्थ भी। किन्तु गृह-व्यवहार से निवृत्त होने और भिक्षाजीवी होने के कारण साधु त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से बच सकता है, किन्तु गृहस्थ के लिये यह संभव नहीं है। उसे युद्ध, कृषि, व्यापार आदि ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिनमें हिंसा अनिवार्य है। अतएव स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग उसके लिये अनिवार्य नहीं रखा गया। त्रस जीवों की हिंसा में भी केवल निरपराध जीवों की संकल्पी हिंसा का ही त्याग आवश्यक बतलाया है। इससे अधिक त्याग करने वाला अधिक लाभ का भागी होता है, किन्तु देशविरति अंगीकार करने के लिये इतना त्याग तो आवश्यक है। इसी प्रकार अन्याय व्रतों में भी गृहस्थ को छूट दी गयी है। हमारे समाज में प्रायः कुछ व्रत और तप करने का रिवाज तो है, लेकिन ज्ञान, दर्शन और चारित्र की तरफ उतना लक्ष्य नहीं है जितना व्रत या तप की तरफ है। व्रत और तप भी उपयोगी हैं, लेकिन इनकी कीमत और ताकत पूरी तब प्राप्त होती है जब व्रत के पीछे संयम हो, चारित्र हो और ज्ञान-दर्शन हों।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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