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________________ ४३८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं से अन्त तक एक बार पढ़ लेना अलग बात है और उसे पचा लेना दूसरी बात है। शिक्षार्थी के लिए आवश्यक है कि वह शिक्षक से जो सीखे, उसे हृदय में बद्धमूल कर ले और इस प्रकार आत्मसात् करे कि उसकी धारणा बनी रहे। उस पर बार-बार विचार करे, चिन्तन करे । शब्दार्थ एवं भावार्थ को अच्छी तरह याद करे। ऐसी तैयारी करे कि समय आने पर दूसरों को सिखा भी सके। चिन्तन-मनन के साथ पढ़े गए अल्प ग्रन्थ भी बहुसंख्यक ग्रन्थों के पढ़ने का प्रयोजन पूरा कर देते हैं। इसके विपरीत, शिक्षक बोलता गया शिष्य सुनता गया और इस प्रकार बहुसंख्यक ग्रन्थ पढ़ लिए गए तो भी उनसे अभ्यास का प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। विनय/विवेक • जिसका विनय किया जाता है वह व्यक्ति धर्मशास्त्र के अनुसार पिंड से पूजनीय नहीं होता, नाम से पूजनीय नहीं होता, लेकिन उसके पूजनीय होने का कारण यदि कोई है तो उसके सद्गुण हैं। इसलिये विनय का आधार बताते हुए कहा कि पहला ज्ञान विनय, दूसरा दर्शन विनय और तीसरा चारित्र विनय है। फिर मन विनय, वचन विनय, काया विनय और लोकोपचार विनय हैं। साधक में विद्या के साथ विनय और विवेक भी होना आवश्यक है। विद्या से विनय के बदले अविनय बढ़ता हो तो समझना चाहिए कि सद्विद्या नहीं है। तभी तो कहा है – “साक्षरा विपरीताश्चेत् राक्षसा एव केवलम्” । आनन्द श्रावक में विनय और विवेक दोनों थे। उन्होंने गुरु गौतम के चरणों में नमन करके विवेकपूर्वक प्रार्थना की-“भगवन् ! मैं असमर्थ हूँ, अत: आपकी इच्छा हो तो इधर पधारें, मैं चरणों में सिर नमा लूँ।" आज विद्या के साथ विनय और विवेक की कमी है। अहीर दम्पती की तरह घी के लिए लड़ने वाले माल भी गंवाते हैं और उपहास के पात्र भी बनते हैं। ढंक कुम्हार विवेकशील था। उसने करीब १५०० साधु- साध्वियों को सुधार दिया। विनय एवं विवेकशील शिष्य गुरु को भी सुधार सकता है। वीतरागता वीतराग की वाणी निराली है। उन्हें अपने भक्तों की टोली जमा नहीं करनी है, अपने उपासकों को किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं देना है। वे भव्य जीवों को आत्म-कल्याण की कुंजी पकड़ा देना चाहते हैं, इसलिए कहते हैं-"गौतम ! मेरे प्रति तेरा जो राग है, उसे त्याग दे। उसे त्यागे बिना पूर्ण वीतरागता का भाव जागृत नहीं होगा।” इस प्रकार की निस्पृहता उसी में हो सकती है जिसने पूर्ण वीतरागता प्राप्त करली हो और जिसमें पूर्ण ज्ञान की ज्योति प्रकट हो गई हो। अतएव भगवान् का कथन ही उनकी सर्वज्ञता और महत्ता को सूचित करता व्यवहार और निश्चय • व्यवहार और निश्चय का सम्बन्ध शरीर और प्राण जैसा है। जीवन के लिए इन दोनों धाराओं की जरूरत होती है, क्योंकि शरीर नहीं तो प्राण कहाँ रहेंगे और प्राण न रहे तो शरीर की कीमत क्या ? अगर जीवन ढंग से जीना है तो उसमें शरीर भी स्वस्थ रहना चाहिए और प्राण भी अबाधित गति से, निरापद ढंग से संचालित होना चाहिये तभी जीवन को स्वस्थ समझा जायेगा और अगर दोनों में से एक भी गड़बड़ा गया तो काम नहीं चल सकेगा।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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