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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २५२ ज्ञाता ज्ञानसूर्य चरितनायक से वार्ता कर प्रमुदित हुए। कोठारी भवन में महासती मंडल को उद्बोधन देते हुए पूज्य चरितनायक ने फरमाया कि संघरक्षा हेतु सती मण्डल का योगदान भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना सन्तों का। यहां से विहार कर आप शास्त्रीनगर पधारे व श्री सोहनराजजी मेहता (हक्कू सा) के बंगले विराजे। शास्त्रीनगर से पूज्यपाद सरदारपुरा, प्रतापनगर, सूरसागर आदि उपनगरों में धर्मोद्योत करते हुए रावटी पधारे। यहाँ आपने क्रियानिष्ठ विद्वान श्री जौहरीमलजी पारख के सेवा मन्दिर पुस्तकालय का अवलोकन किया। यहाँ से पूज्यप्रवर पावटा, घोड़ों का चौक फरसते हुए महावीर भवन पधारे। • हीरक जयन्ती एवं ६५ वीं दीक्षा जयन्ती ६ जनवरी १९८५ पौष शुक्ला चतुर्दशी को पूज्य आचार्य हस्ती का ७५ वां जन्म-दिवस हीरक जयन्ती के रूप में तप-त्याग के विविध-आयोजनों के साथ मनाया गया। हीरा कठोरता एवं आलोक दोनों का ही सूचक है। परम पूज्य गुरुदेव जहाँ एक ओर संयम-पालन एवं अनुशासन में हीरक मणि की तरह कठोर थे, उसमें कोई शिथिलता उन्हें ग्राह्य नहीं थी, वहीं उनका जीवन साधना की चमक, आराधना की दमक व गुण सौरभ से देदीप्यमान था। ज्ञानसूर्य पूज्य हस्ती जिनशासन के जाज्वल्यमान दिवाकर एवं रत्नवंश परम्परा के देदीप्यमान रत्न थे। पूज्य संतवृन्द, महासती वृन्द व श्रावक-श्राविकाओं ने संघशास्ता, चरित्र तेज से तेजस्वी एवं ज्ञान-आलोक से ज्योतिर्मान, पूज्य आचार्य हस्ती के साधनामय जीवन की विभिन्न विशेषताओं का गुणानुवाद करते हुए शतायु होने की मंगल कामना की। साधना के दिव्य आलोक पूज्यप्रवर के हीरक जयन्ती के इस प्रसंग पर श्री सुल्तानमलजी सुराणा, श्री उम्मेदराजजी गांग, श्री दीपचन्दजी कुम्भट श्री दशरथमलजी भंडारी व श्री नारायण स्वरूप जी दाधीच ने आजीवन शीलवत अंगीकार कर शील के तेज से अपने जीवन को दीप्तिमान बनाया। इस अवसर पर करुणाकर गुरुदेव ने अपने प्रेरक पावन उद्बोधन में व्यक्ति और समाज को आगे बढाने के चार सूत्रों का निरूपण किया। आपने फरमाया-शिक्षा, साहित्य, संस्कार और सेवा, इन चार सूत्रों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति व समाज प्रगति कर सकता है। चरित्र और संस्कार-निर्माण के पथ के तीन सोपान हैं-सामायिक, स्वाध्याय और साधना। २३ जनवरी १९८५ माघ शुक्ला द्वितीया को महावीर भवन, नेहरु पार्क में आपकी ६५ वी दीक्षाजयन्ती ज्ञान, दर्शन व चारित्र की आराधना के साथ आयोजित की गई। इसके ६५ वर्ष पूर्व इसी दिन बालक हस्ती जिनशासन में 'णमो लोए सव्व साहूणं' के पद पर आगे बढ़ कर जैन जगत में द्वितीया के चन्द्र के रूप में शोभित हुए थे। साधु, साध्वी, श्रावक व श्राविका इस चतुर्विध संघ में आज ये ६५ वर्ष की दीक्षा सम्पन्न साधना निष्ठ महापुरुष ग्रह नक्षत्र व तारों के बीच पूर्णचन्द्र की भांति सुशोभित थे व भव्य जीवों को ही नहीं, प्राणिमात्र को अपने सुखद सान्निध्य की शीतल छाया प्रदान कर रहे थे । अद्भुत तेजस्विता-सम्पन्न पुण्यनिधान आचार्य भगवन्त के पावन दर्शन व वन्दन कर कृतार्थ जनसमूह, आपकी प्रवचन सुधा का पान करने को आतुर था। उत्सुक श्रद्धालु संघ को अपनी भवभयहारिणी पातकप्रक्षालिनी पीयूषपाविनी वाणी से पावन करते हुए भगवन्त ने फरमाया - "जयन्तियाँ स्नेहानुराग की प्रतीक हैं, मानव द्विजन्मा है, जिसका प्रथम जन्म मातृकुक्षि से प्रकट होना तथा दूसरा जन्म गुरुजनों से संस्कारित होना है। लाखों वर्षों का जीवन भी बंध का कारण बनकर व्यर्थ हो जाता है, किन्तु जिस वक्त गुरुजनों के चरणों में व्रत ग्रहण करने का समय आता है, वह क्षण धन्य हो जाता है । असंयमी व्यक्ति को संयम-धन प्रदान करते हुए गुरु उसे जीवन में कठिनाइयों से भयाक्रान्त न होने का आशीर्वाद देते हैं कि साधक कहीं अटके नहीं, भटके नहीं। पूज्यपाद गुरुदेव
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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