SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५३ [प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड के मंगल आशीर्वाद के प्रताप व उनके पावन शिक्षा सूत्रों से ही मेरे जीवन का निर्माण हुआ है।" सुदीर्घ संयम-जीवन के धनी, निरतिचार साधना के पालक आचार्य हस्ती के ये विनम्र उद्गार उनकी उत्कट गुरुभक्ति, श्रद्धा, समर्पण एवं विनय के साथ इस बात के परिचायक हैं कि उनके जीवन में सर्वाधिक महत्त्व किसी बात का था तो वह है संयम । वस्तुत: संयमविहीन जीवन मृत्यु से भी बदतर है, असंयम में व्यतीत सभी रात्रियाँ सभी घडियाँ व सभी क्षण व्यर्थ हैं। श्रमण भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में अपनी देशना में फरमाया है - अधम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ। यहाँ से पूज्यपाद कोठारी भवन पधारे जहाँ डॉ. शिव मुनिजी (सम्प्रति श्रमण संघ के आचार्य) व पं. रत्न श्री मूलमुनिजी ने आपके पावन दर्शन किए व सेवा का लाभ लिया। • पाँच मुमुक्षुओं की दीक्षा ३१ जनवरी १९८५ माघ शुक्ला दशमी गुरुवार का शुभ दिन, रेनबो हाउस स्थान, आचार्य श्री, सन्तमंडल तथा प्रवर्तिनी श्री सुन्दरकंवर जी म.सा. एवं सतियों सहित ४३ संत-सतियों का सान्निध्य, प्रायः २५ से अधिक क्षेत्रों के श्रीसंघों की उपस्थिति, मंगलाचरण एवं दीक्षार्थी भाई-बहनों के अबाध संयमी जीवन की मंगल-कामना करती सभा, श्री ज्ञानेन्द्रजी बाफना का संचालन, सब कुछ दिव्य और अद्भुत लग रहा था, और ऐसे में हुई इन पाँच मुमुक्षुओं की भागवती दीक्षा-१. श्री दुलेहराज जी सिंघवी, पाली २. सुश्री विमला कांकरिया, मद्रास ३. सुश्री इन्दिरा जैन भनोखर, अलवर ४. सुश्री सुनीता जैन सहाड़ी, अलवर, ५. सुश्री मीना जैन, हिण्डौन। दीक्षोपरान्त नव दीक्षित साधकों के क्रमश: श्री दयामुनिजी, विनयप्रभाजी, इन्दिराप्रभाजी, शशिप्रभाजी एवं मुक्तिप्रभाजी नाम दिए गए। इस अवसर पर शिक्षा-दीक्षा समिति के संयोजक श्री चम्पालालजी धारीवाल पाली, कर्मठ समाजसेवी श्री भंवरलालजी बाघमार मद्रास, श्री सूरजमल जी मेहता अलवर, कुशल वैद्य श्री सुशील कुमारजी जैन जयपुर एवं श्री हरिप्रसादजी जैन मण्डावर को उल्लेखनीय संघ-सेवा के लिए संघ द्वारा सम्मानित किया गया। स्वास्थ्य-सम्बन्धी कारण से पूज्यपाद का विराजना जोधपुर में ही रहा, तथापि आप किसी एक क्षेत्र में न | विराजकर सरदारपुरा, पावटा, भाण्डावत भवन आदि विभिन्न स्थानों पर धर्मोद्योत करते रहे। पूज्य गुरुदेव सदैव संघ को प्रमुख समझते हुए व्यक्ति को इसकी एक इकाई मात्र मानते थे। गुरुदेव का दृष्टिकोण था कि व्यक्ति संघ-सिन्धु का एक बिन्दु मात्र है। ९ फरवरी ८५ को पावटा प्रथम पोलो में महासती-मण्डल ने पूज्यपाद के श्री चरणों में प्रश्न किया कि भगवन् ! व्यक्ति की उन्नति, प्रतिष्ठा, यशकीर्ति की अभिलाषा अच्छी है या संघ की उन्नति में उन्नति मानना अधिक उपयुक्त है। संघनिष्ठ पूज्यप्रवर ने सहज समाधान करते हुए फरमाया-"महासती जी ज्ञानकंवरजी, इन्द्रकंवरजी, धनकंवरजी, लालकंवरजी, राधाजी, केसर कंवरजी आदि अनेक महासतियां व स्वामीजी चन्दनमलजी म.सा. आदि बीसियों संत चले गये, लेकिन वे संघ की उन्नति में तत्पर रहे, अत: संघ आज भी कायम है। व्यक्ति न रहा है , न रहेगा, अत: संघ बड़ा है, इस सिद्धान्त पर चलने की जरूरत है।" • बालोतरा होकर पाली __जोधपुर से विहार के क्रम में ११ मार्च को पूज्यपाद शास्त्रीनगर पधारे । यहाँ श्री कोमलचन्दजी मेहता ने सपत्नीक आजीवन शीलवत अंगीकार कर अपने जीवन को संयमित किया। पालगांव में श्री जतनराजजी मेहता, मेड़ता ने आजीवन शीलवत अंगीकार कर श्रद्धा समर्पित की। पाल से बोरानाडा दूरी कम , लुणावास होकर धवा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy