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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड संस्थापित धर्म-संघ की पूर्वाचायों द्वारा संरक्षित इस यशस्विनी रत्नसंघ परम्परा की मर्यादाओं को अक्षुण्ण बनाये रखने एवं इसकी गौरव अभिवृद्धि हेतु प्रयासरत रहने का मैं संकल्प करता हूँ। इसमें सभी बड़े महापुरुषों श्रद्धेय स्वामीजी श्री सुजानमलजी म.सा, श्री भोजराज जी म.सा, श्री अमरचन्दजी म.सा, श्री लाभचन्द जी म.सा. आदि का सहज स्नेह तो मुझे प्राप्त ही है। मैं इन्हीं पूज्य सन्तों तथा बड़ी सतियों के सहयोग से इस गरिमामय पद को निभाने में सक्षम बन सकूँगा। परम पूज्य स्वामीजी श्री सुजानमल जी म.सा. ने मेरे अध्ययनकाल में संघ-संचालन के साथ ही मेरे संरक्षण व संघ की सारणा-वारणा का जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है वह गौरवशाली रत्नपरम्परा के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। चतुर्विध संघ के सभी अंग साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका उत्तरदायित्व निर्वहन व शासन-संचालन में मुझे पूर्ण सहयोग देंगे, ऐसी अपेक्षा है। यह चादर जो आपने मुझे ओढायी है, वह संघ-संगठन, परस्पर-मैत्री, समन्वय व श्रद्धा-समर्पण की प्रतीक है। चादर में ताना बाना जिस तरह परस्पर जुड़े हैं, वैसे ही हमारा संघ गुण-वीथिका में ग्रथित रहकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि करते हुए जिन शासन की जाहो जलाली में संलग्न रहे । मैं विश्वासपूर्वक चतुर्विध संघ को आश्वस्त करता हूँ कि मैं अपनी पूर्ण शक्ति एवं योग्यता के साथ संघ के प्रति समर्पित रहूँगा और आपके सहकार से पंचाचार एवं रत्नत्रय की निर्विघ्न साधना में हम निरन्तर आगे बढ़ते रहेंगे।" इस अवसर पर संघ द्वारा लब्धप्रतिष्ठ मैथिल ब्राह्मण पण्डित श्री दुःखमोचन जी झा का विशेष सम्मान के साथ हार्दिक अभिनन्दन किया गया। पं. झा से चरितनायक, मुनि श्री चौथमल जी महाराज एवं मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी ने विक्रम संवत् १९८० से १९८६ के मध्य संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा तथा विविध ग्रन्थों का अध्ययन कर तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। पं. श्री झा के कौशल और अथक श्रम की चतुर्विध संघ ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। जौहरी भाई दुर्लभजी द्वारा आचार्य पद का महत्त्व बताकर गुणगान करने के बाद भंडारी दौलतरूप चन्दजी, भण्डारी गुमानमलजी ने मंगलमय गीतिकाओं से स्तुति की। समारोह संक्षिप्त एवं आडम्बर रहित होने के साथ संघ में नवचेतना, उमंग व उत्साह के संचार में समर्थ था। सबके मुखमण्डल की आभा से प्रमोद का उद्घोष हो रहा था। समारोह को सफल बनाने में जोधपुर संघ के प्रमुख श्रावकगण श्री नवरत्नमल जी भाण्डावत, श्री शम्भुनाथ जी मोदी, श्री चन्दनमलजी मुथा, श्री छोटमलजी डोसी, श्री नाहरमलजी पारख, श्री धूलचन्दजी रेड, श्री चाँदमल जी सुराणा एवं युवारत्न श्री विजयमल जी कुम्भट श्री सुमेरमल जी भण्डारी आदि की उल्लेखनीय भूमिका रही। समारोह में सभी सम्प्रदायों का पूरा-पूरा सहयोग था। • आचार्य पद के दायित्व का बोध ___ अब चरितनायक पूज्य हस्ती के स्कन्धों पर चतुर्विध संघ के संचालन का महान् दायित्व आ गया था , जो || उन्हें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व एवं चेतना को और अधिक ऊर्जावान बनाने की प्रेरणा कर रहा था। अन्त:करण में चिन्तन की धाराएँ प्रस्फुटित हो रही थीं । विवेक उन्हें सम्यक् राह दिखा रहा था। भावी स्वत: ही सफलीभूत होने के लिए तत्पर दिखाई पड़ रहा था। आचार्य श्री हस्ती मुख से कुछ न बोलकर भी चेहरे से अपने ओजस्वी भाव प्रकट कर रहे थे। वे शान्त, किन्तु गम्भीर मुद्रा में चिन्तनमग्न होकर भावी की रेखाओं का निर्माण सोच रहे थे। आचार्य पद पर संघ द्वारा अभिषिक्त रत्नवंश के सप्तम पट्टधर बाल ब्रह्मचारी श्री हस्तीमल जी महाराज की सेवा में इस अवसर पर अनेक नगरों एवं ग्रामों के श्रीसंघों ने वि.सं. १९८७ का चातुर्मासावास अपने यहाँ करने की भावभरी विनतियां की। वयोवृद्ध सन्तों से परामर्श कर जयपुर संघ द्वारा की गई विनति को संघहित में प्राथमिकता
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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