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________________ ५६ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं प्रदान कर आचार्य श्री हस्ती ने यह चातुर्मास जयपुर में करने की साधुभाषा में स्वीकृति प्रदान की। आचार्य पद-महोत्सव के अनन्तर जोधपुर श्री संघ की भावभरी विनति को ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री का अपने सन्तवृन्द के साथ कतिपय दिनों के लिए जोधपुर में ही विराजना रहा। पूर्व आचार्यश्री शोभाचन्द्र जी म.की रुग्णावस्था और स्थिरवासकाल में आपश्री वि.सं. १९७९ से १९८३ के चातुर्मास काल तक जोधपुर नगर में विराजमान रहे थे। इस कारण जोधपुर संघ के आबाल-वृद्ध सभी आपके व्यक्तित्व से भली-भांति प्रभावित थे। इस बार आपको अपने श्रद्धालु उपासकों के साथ ज्ञानचर्चा, शंका-समाधान, मार्गदर्शन, संघसंचालन सम्बंधी उत्तरदायित्व के कारण नगरवासियों से पूर्वापेक्षा अधिक निकट सम्पर्क में आना पड़ा। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से उसके आध्यात्मिक कार्यकलापों का पूरी तरह से लेखा-जोखा लेने और उसे सुपथ पर अग्रसर होते रहने की प्रेरणा देने की प्रवृत्ति सबको लुभाने लगी, फलतः जन-जन के मन में आपके प्रति बहुमान एवं श्रद्धा बढ़ने लगी। अपनी अप्रतिम स्मरण-शक्ति के लिए तो आप बाल्यकाल से ही प्रसिद्ध रहे। एक बार जिसे देख लिया उसे जीवन भर न भूलना आपकी स्मरण-शक्ति का अद्भुत चमत्कार था। ___ आचार्य पद महोत्सव के दिन सायंकालीन प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों से निवृत्त होकर स्वाध्याय-ध्यानादि के पश्चात् जब सोने के लिए पाट पर लेटे तो बड़ी देर तक आपको निद्रा नहीं आई। निद्रा नहीं आने के कारण के सम्बंध में विचार करने पर आपको अनुभव होने लगा कि आप पर संघ-निर्माण का बहुत बड़ा दायित्व आ गया है। | आप तत्काल उठ बैठे और मन ही मन अपने आत्मदेव से कहने लगे-“अब पहले की भांति सोना कहाँ ! अब तो मुझे आज से ही उन सब कार्यकलापों की एक सर्वांगपूर्ण रूपरेखा तैयार करनी होगी, जिनके निष्पादन से श्रमण भगवान महावीर का यह धर्मसंघ और अधिक उत्कर्ष की ओर अग्रसर हो सके।” फलस्वरूप आपने समय-समय पर एतद्विषयक चिन्तन करने का दृढ़ संकल्प किया। यही कारण था कि आगे चलकर संघहित के अनेक कार्य पूज्य गुरुदेव द्वारा सम्पन्न हुए। दूसरे दिन प्रातःकाल वयोवृद्ध सन्तों के अनुरोध पर आपने श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं के विशाल समूह के समक्ष प्रवचन किया। चतुर्विध संघ ने आपकी प्रवचन शैली की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। वयोवृद्ध सन्तों एवं सती-वृन्द के हर्ष का पारावार न रहा। आपश्री के आचार्यपद महोत्सव के समय जो ३५ सतियां उपस्थित थीं, उनमें आपकी माताजी महाराज श्रीरूपकंवर जी भी थीं। सभी तप:पूता साध्वियों ने व्याख्यान के अनन्तर अपने आचार्यदेव को वन्दन-नमन कर आपश्री का वर्धापन किया। • साध्वी माँ से संवाद सभी सतियों ने माताजी महाराज श्री रूपकंवर जी को रत्नवंश परम्परा के नवोदित ज्ञानसूर्य आचार्यश्री से बात करने का आग्रहपूर्ण अनुरोध किया। बड़ी देर तक सतीजी श्री रूपकंवर जी मौन खड़ी रहीं। अन्त में अपनी गुरुणी महासतीजी श्री बड़े धनकंवर जी के आदेश को शिरोधार्य कर आचार्यश्री के समक्ष अपने श्रद्धासागर का उड़ेल दिया। दोनों के बीच का यह वार्तालाप उल्लेखनीय है सती श्री रूपकंवर जी-'आचार्यदेव ! आपके सुखसाता है?' आचार्य श्री- “धरित्रीतुल्य धैर्यमूर्ति की गोद में पले प्राणी को अमंगल कभी भी छू नहीं सकता। गुरुदेव के प्रताप से और आप सबके सद्भावनापूर्ण स्नेह से आनंद मंगल है।"
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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