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________________ गृहवास्तु भूमिपरीक्षा के प्रतिमानों का सार संक्षेप 1. जलप्रवाह पूर्व, उत्तर अथवा ईशान की ओर जाय वह भूमि उत्तम । अर्थात् उसे उत्तम भूमि समझें जो पूर्व दिशा, उत्तर दिशा, ईशान कोण में नीची हो और पश्चिमदिशा, दक्षिणदिशा आदि में ऊंची हो । प्रथम भाग 2. 24 इंच का गड्ढ़ा खोदकर, उसमें पुनः भरने पर मिट्टी अधिक शेष बच जाय वह भूमि उत्तम । उसमें बीज बोने पर शीघ्र अंकुर फूट जाय वह भूमि उत्तम । 3. समचोरस :- जो भूमि “समचोरस" हो, सम बाहुस्थल वाली हो वह उत्तम । " विषम वास्तुस्थल" (अर्थात् जिस भूमिखंड Plot / Site की चार भुजाएं या कोने नाप में कम-ज्यादा हों, एक समान नाप के न हों ऐसी भूमि अच्छी नहीं होती, वह दरिद्रता देती है। संक्षेप में चारों कोनों में 90° (Ninety Degree) कोण हो । इसके सिवा त्रिकोण, विषमबाहु, दंडाकार, वृत्ताकार, चक्राकार, अंडाकार, शकटाकार डमरुकाकार, कुंभाकार, मूसलाकार, स्तूपाकार, अर्धचन्द्राकार, मृदंगाकार, पंखाकार, इत्यादि भूमिखंड अच्छे नहीं हैं । 4. अखंड, बिना फटी हुई, बिना क्षत-विक्षत हुई "अक्षतभूमि” अमरताप्रदाता होती है। जन-जन का 5. जंतुरहित, बिना जंतुओं की भूमि व्याधि - शामक होती है । 6. शल्यरहित, बिना कंटकों की भूमि सुखदायक होती है । 7. पूर्वोत्तर में नीची भूमि (ऊपर नं. 1 में कथित) सुखप्रदायक होती है, सर्वोत्तम होती है। 8. भूमि के ऊंचे-नीचे स्तरों (Levels) के विशेष वर्गीकृत परिणाम: * नैऋत्य कोण (South West) * पश्चिम दिशा (West) * दक्षिण दिशा (South) * अग्नि कोण (South East) * वायव्य कोण (North West) * मध्यभाग (Centre) इतने हिस्सों में जितनी नीची हो, अर्थात् पानी का प्रवाह इन सभी की ओर ले जानेवाली हो तो वह अशुभ व्याधिदाता, रोगप्रदाता, दारिद्रय-दाता, कानून - फिसाद दाता, वध एवं मृत्युकारक भी होती है । वास्तुसार - 9
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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