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________________ आत्मा की विशुद्धावस्था की हिमालय शैल-सी अवस्था को इंगित करने वाले जैनदर्शन - जैन जीवन जैन शासन संस्कृति ने कभी 'आत्मा को बसाने वाले देह' को समुचित स्थान में बसाने की आवश्यकता व्यवस्था की उपेक्षा नहीं की। परम विशुद्ध परमाणुमय परम ज्ञानियों के तीर्थस्थान एवं सामान्य शुद्धि-युक्त श्रावक आराधकों के आवास स्थान इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहते हैं। कई सूत्र-ग्रन्थों में आगम ग्रन्थों से लेकर 'धर्मबिन्दु' एवं 'वास्तुप्रकरण सार' जैसे कई वैज्ञानिक जैन शास्त्र ग्रंथ एवं कई प्रत्यक्ष जिन प्रासाद,जिनालय, जैन आवास इस बात के साक्षी हैं। जिनाराधक श्रावकों के आवास किस वसति-वातावरण में हों, कैसे हों, किस प्रकार के हों, सूर्यप्रकाश - शुद्धवायु - शुद्ध प्राणशक्ति - प्रदाता किस दिशा में हों, किस परिमाण - प्रतिमान के हों - इन अनेक बातों से, दिशानिर्देश से स्पष्ट मार्गदर्शन से, ये सारे ग्रन्थ भरे हुए हैं। ग्रन्थों के अनुसार प्रत्यक्ष प्रायोगिक तथ्यों को पृष्ट करनेवाले उपर्युक्त कई भवन, मकान, प्रासाद भी उदाहरण के तौर पर आज भी देते हैं। इन आवासों - भवनों के उपरान्त, सदियों से जैन संस्कृति की जैन शिल्प स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्र की गरिमा की यशगाथा गानेवाले अनगिनत जिनालय - जिन मंदिर प्राचीनता से अर्वाचीनतम हमारे सन्मुख उपस्थित हैं। इन जिन - बिम्ब स्थानों के साथ साथ जिन - साधना - स्थानों, जिन - विद्या स्थानों का भी कुछ लुप्त-सा जैन इतिहास संशोधन की अपेक्षा रखता है। परन्तु इसे अभी यहीं छोड़कर जिन श्रावकों - आराधकों को अपने व्यवहार निर्वहनपूर्ति के लिये जहाँ बसना है उन आवास - स्थानों की प्राचीन स्थिति का संक्षेप में अध्ययन करते हुए हमें हमारे वर्तमान श्रावकों के आवास - स्थानों कीओर आना है। श्रावकों के आवास : वर्तमान का धरातल __ आज हमारे औसतन श्रावक बन्धुओं की आवास - अवस्था क्या है? महानगरों में एवं मध्यम शहरों में विशेषकर, एवं गांवों में भी गौणरुपसे। क्या कभी हम निरीक्षण करते हैं, सोचते और चिन्ता करते हैं कि जिन पर जिनमार्ग के, जैनधर्म के पालन - संवर्धन का आधार है ऐसे हमारे महदंश श्रावक किस अवस्था में जी रहे हैं? क्या उनकी आय एवं उनकी प्रवृत्ति का विस्तार उन्हें स्वास्थ्यप्रद एवं अपनी आराधना को बल देनेवाले अपने संस्कारों को बनाये रखने में सहाय - क्षम ऐसे आवास • निवास प्रदान करते हैं? एक ओर तो संपन्न श्रावकों की विलासमय अट्टालिकाएँ हैं, तो दूसरी ओर विपन्न श्रावकों की स्थिति? "तुम जलाशय में थिरकते, प्यास हम ढोते रहे। रोशनी दासी तुम्हारी, हमें तो अंधे पथ चले॥" जैन वास्तुसार 89
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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