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________________ २७४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन केवल ताल और लय के आधार पर द्र त, मन्द या मध्यम पदनिक्षेप किया जाता है । नृत्त के दो भेद हैं-मधुर और उद्धत । मधुर नत्त को लास्य तथा उद्धत नृत्य को ताण्डव कहते हैं।' उद्द्योतनसूरि ने इन दोनों प्रकार के नृत्यों का उल्लेख किया है। लास्यनृत्त-लास्य नृत्त के अन्तर्गत कुवलयमालाकहा में उल्लिखित इन नृत्तों को रखा जा सकता है-ताल पर नत्त करनेवाली देवियों का नृत्त (१.१)। रास में नाचती हुई युवतियों का नृत्त, पवन से उद्वेलित कोमल लताभुजाओं का नत्त, गीतरव द्वारा भंग ताल-लय से युक्त अप्सराओं का नृत्त, नूपुर की किकिणियों के शब्दों की लय पर नाचती हुई अप्सराओं का नत्त,५ तथा वाहुलताओ के संचालन से मणिवलय के शब्दों के ताल पर मंथरगति से पदनिक्षेप करती हुई कुवलयमाला की माता का नृत्त । इस विवरण से ज्ञात होता है कि कामिनियों के मधुर एवं सुकुमार नृत्त लास्य नत्त कहे जाते हैं। बाहुप्रों का कोमलता से निक्षेप इसकी विशेषता है। मयूर का कोमल नर्तन भो लास्य के अन्तर्गत आता है, जिसका उल्लेख उद्द्योतन ने किया है। दशरूपककार के अनुसार नाटथशास्त्र में सुकूमार नत्य का प्रारम्भ पार्वती ने किया था (१.४) । ताण्डव नत्त-उद्धत नृत्य को ताण्डव कहा गया है। धनंजय के अनुसार नाटय में ताण्डव का संनिवेश महादेव ने किया था (दशरूपक १.४) । महादेव के ताण्डव नृत्य का उल्लेख उद्द्योतन मूरि ने दो प्रसंगों में किया है । राक्षस द्वारा समुद्र में तूफान उत्पन्न कर देने से समुद्र मनुष्यों के सिरों को मुंडमाला पहिने हुए-विरइय-णर-सोस मालावयं, पवन से उद्वेलित जलखंडों की आवाज द्वारा अट्टहास करते हुए तथा वेताल की अग्नि द्वारा तृतीयनेत्र को जलाते हुए शंकर की तरह ताण्डव नृत्य करने लगा-- तंडयं णच्चमाणस्स (६८.२६) । वर्षाऋतु में मेघसमूह ने काले मेघटुकड़ों की मुंडमाला पहिन कर-अहिणव-मलिण-जलयमाला-भायंकवालमालालंकारे--विजलियों की चमक का तृतीय नेत्र धारण कर १. वही, १.१०. ताल-चलिर-वलयावलि-कलयल-सद्दओ। । रासयम्मि जइ लब्भइ जुवई-सत्थओ ॥--४.२९. . ३. णच्चंतं पिव पवणुब्वेल्ल-कोमल-लया-भुयाहि । -३३.७.. ४. गीय-रव भंग णासिय-ताल-लउम्मग्ग-णच्चिरच्छरसं ।-९६.१४. ५. अवसेसच्छरसा-गण-सरहस-णच्चंत-सोहिल्लं । रयण-विणिम्मिय-णेउर-चलमाण-चलंत- किंकिणी-सहं । -९६.२२, २३. ६. कुवलयमाला-जणणी वि सरहसुब्वेल्लमाण-बाहुलया-कंचण-मणि-वलय-वर-तरल कल-ताल-वस-पय-णिक्खेव-रेहिरा मंथरं परिसक्किया । १७१.१३. ७. णच्चंति बरहिणो गिरिवर-विवर-सिहरेसु ।-१४७.२४.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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