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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
वसुराज का पूर्वभव - अंधकवृष्टि के दश पुत्रों में से समुद्रविजय आदि नौ पुत्र तो पूर्वभव में भाई ही थे और दीक्षा लेकर मुनि हुए थे । वे स्वर्ग में जाकर पुनः यहाँ अवतरित हुए हैं। दसवें पुत्र वसुराज (श्री कृष्ण के पिता) वह पूर्वभव में नन्दिसेन नामक निर्धन तथा कुरूप मनुष्य थे और दुःखों से व्याकुल होकर आत्महत्या का विचार कर रहे थे, उस समय शंख और निर्नामक नामक जो कि भविष्य में बलभद्र तथा कृष्ण होंगे, ऐसे दो मुनिराजों ने उसे देखा और उसे निकटभव्य तथा अगले भव में यह हमारे पिता होने वाले हैं - ऐसा जानकर उन मुनियों ने उसे आत्महत्या करने से रोका और धर्म का स्वरूप समझाकर जिनदीक्षा दी। वे नन्दिसेन मुनि वैयावृत्य तप में प्रसिद्ध थे, उनको अनेक लब्धियाँ प्रगट हुई थीं । जैन शासन में धर्मात्मा के वैयावृत्य की अपार महिमा है ।
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नन्दिसेन मुनिराज मुनियों की परम सेवा करते थे, परन्तु वे एक भूल कर बैठे। वे दुर्गन्धित शरीर से त्रस्त होकर मुनि हुए थे, उस शल्य के कारण वे ऐसा निदान कर बैठे कि “धर्म के प्रताप से भविष्य में मुझे अतिसुंदर - रूपवान शरीर प्राप्त हो ।” इसलिये स्वर्ग से जाकर फिर वह जीव अंधकवृष्टि का सबसे छोटा पुत्र वसुराज हुआ, जो अतिसुंदर और रूपवान था ।
अरेरे ! अपना आत्मा जो स्वभाव से ही अतिसुन्दर और सुखमयी है तथा आश्रय लेनेवाले को सुखदाता भी है, उसका विस्मरण कर नंदिसेन मुनि ने ये क्या जड़ शरीर की सुंदरता मांग ली। अरे ! इस मुनि पर्याय से तो मोक्ष मिल सकता था, जो अनंत सुखमयी और स्थिर है। जड़ शरीर में तो सुख भी नहीं और स्थिरता भी नहीं। अपने विपरीत विचारों से ही यह जीव हाथ में आया हुआ चिंतामणि रत्न छोड़कर काँच के टुकड़ों में संतुष्ट हो जाता है । अतः सुखस्वरूप होकर भी सदा दु:खी रहता है।