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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
59 __ अंधकार ने अपना पूर्ण साम्राज्य जमा लिया था। तभी भूत, प्रेत एवं राक्षसों ने आकर अपना भयानक रूप दिखाकर चारों ओर भागना-दौड़ना प्रारम्भ कर दिया और भयानक स्वर में चिल्लाने लगे। कितने ही तो डाँस मच्छर बनकर काटने लगे, कितने ही सर्प के समान फुफकारने लगे। इस तरह पाप में रत राक्षसों ने मुनिवरों पर जैसा भयंकर उपसर्ग किया, उसका वर्णन नहीं हो सकता। सभी मुनिराजों ने निश्चल ध्यान में मेरू पर्वत के समान स्थिर हो सभी प्रकार के उपसर्गों पर विजय प्राप्त की।
उपसर्ग के शांत होते ही सभी ने चार प्रकार की आराधना की और प्रातःकाल की बेला में समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आचार्य विद्युच्चर मुनि सवार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। इसीप्रकार प्रभव आदि पाँच सौ मुनि भी अपने-अपने परिणामों के अनुसार देह त्यागकर देव हुए। इस भव में साधना अधूरी रह गई, पर आगामी भवों वे अपनी साधना पूर्ण करके अवश्य मोक्ष प्राप्त करेंगे।
संसार का स्वरूप 1. संसार दुःखों का समुद्र है। निरन्तर एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण
करता रहता है। 2. यहाँ स्थिरता नहीं है, ध्रुवता नहीं है, सदा आकुलता ही आकुलता है। 3. यहाँ अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक दुःख भोगता रहता है।
शारीरिक दुःख - जन्म, मरण, वृद्ध होना, भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि से पीड़ित होता रहता है।
मानसिक दुःख-इष्ट का वियोग व अनिष्ट का संयोग पाने पर रोग-पीड़ा आदि के कारण चिंतित व आकुलित होता रहता है।
इसप्रकार संसार संबंधी अनेक दुःखों की भयंकरता भासित हो और असार संसार का स्वरूप समझकर हम उसकी रुचि छोड़ें, उससे उदासीन होकर मुक्त होने का उपाय करें। - पं. पन्नालालजी गिड़िया की डायरी से