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________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 वनकेलि को पृथ्वीपाल के हाथी से टकराकर ऐसा अस्त्र प्रहार किया कि पृथ्वीपाल का मस्तक पृथ्वी पर लौटने लगा। इतने में एक सैनिक राजा पृथ्वीपाल का मस्तक भाले में पिरोकर पद्मनाभ के पास लाया .... वह करुण दृश्य देखते ही राजा पद्मनाभ चौंक उठे, उन्हें पूर्व भव का स्मरण हो आया, उनका चित्त संसार से एकदम विरक्त हो गया और वे विचारने लगे - अरे, इस एक हाथी के लिये इतनी हिंसा ! अरे पूर्वभव में मैं चक्रवर्ती था तब मैंने चौरासी लाख श्रेष्ठ हाथियों को एक क्षण में त्यागकर दीक्षा ले ली थी और आज इस एक हाथी के मोह में क्यों फँस गया ? यह मोहबंधन शोभा नहीं देता ऐसी भावना से पश्चाताप पूर्वक क्षमाभाव धारण करके उन्होंने युवराज धर्मपाल को मुक्त कर दिया और बोले - हे बेटा ! अपने पिता की राजगद्दी तू सँभाल और युवराज सुवर्णनाभ का भी मित्र बनकर रहना। युवराज का राज्याभिषेक कर राजा पद्मनाभ, श्रीधर मुनिराज से जिनदीक्षा अंगीकार कर अब ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहने लगे। यह सब दृश्य देखकर गजराज वनकेलि भी वैराग्य को प्राप्त हुआ। मैं पशु नहीं हूँ मैं तो मुनि भगवंत समान शान्त स्वरूप आत्मा हूँ। ऐसे वेदन के साथ सम्यग्दर्शन से अलंकृत होकर वह भी अणुव्रत अंगीकार कर अपने स्वामी के चरण चिह्नों पर चलने लगा। मुनिराज जहाँ-जहाँ विहार करते वहाँ गजराज भी उनके साथ जाता - आत्मचिंतन करता – वैराग्यमय जीवन बिताता । मुमुक्षु श्रावक भी हाथी की चर्या को देखकर वैराग्य प्राप्त कर लेते - धर्म की अपार महिमा जागृत होती । मुनिराज तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर समाधिपूर्वक वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए और तत्त्वचर्चा करते हुए पर्याय पूर्णकर आगामी भव में भरतक्षेत्र की चौबीसी के आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ हुए। बोलिये चन्द्रप्रभ भगवान की जय हो।
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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