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...... - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 को वश में कर लिया। हाथी भी मानों पुण्यवन्त राजा को पहचान गया हो, अतः शान्त होकर उनकी आज्ञा मानने लगा। उस पर बैठकर राजा पद्मनाभ नगरी में आये और नगरजनों ने विजयोत्सव के रूप में भव्य स्वागत किया। वह हाथी भी सूंड उठा-उठाकर सबको प्रणाम कर रहा था, मानो नगरजनों से क्षमा याचना ही कर रहा हो।
यह वनकेलि नाम का हाथी पड़ोसी राजा पृथ्वीपाल का था। अतः जब पृथ्वीपाल को पता चला कि उसका हाथी राजा पद्मनाभ के पास है। तब उसने राजा पद्मनाभ के पास अपना दूत भेजकर संदेश भेजा। राजदूत ने राजा पद्मनाभ को राजसभा में संदेश सुनाया।
हे महाराज ! हमारा प्रिय गजराज ‘वनकेलि' आपके राज्य की सीमा में आया और आपने पकड़कर उसे अपनी सवारी के लिये रख लिया - ऐसा करके आपने हमारे राजा का अपमान किया है, अब आप उस हाथी को हमें वापस दे दीजिये अन्यथा हमारे राजा युद्ध करके अपना हाथी लेना जानते हैं।
पद्मनाभ समझ गये कि राजा पृथ्वीपाल युद्ध के लिये ललकार रहा है- दूत को उत्तर देने के लिये उन्होंने युवराज की ओर आँख का संकेत दिया।
कुशल युवराज सुवर्णनाभ पिता के भाव को समझ गया, उसने दूत को सम्बोधन कर कहा- सुन दूत ! तेरे राजा चाहे जितने शक्तिशाली हों, परन्तु उनका अभिमान ही उनका विनाश करेगा। क्या तेरे राजा के पास दूसरा हाथी नहीं है, जो इस हाथी की भीख माँगने के लिए तुझे भेजा है ? जब तुम्हारा हाथी पागल होकर प्रजाजनों को कुचल रहा था तब कहाँ गया था तेरा राजा ? उस समय हमारे महाराजा ने महान पराक्रम से उस हाथी को जीतकर वश में किया है। इसप्रकार उलाहना देकर दूत को लौटा दिया।