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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
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धातकीखण्ड में अजितसेन चक्रवर्ती ( भगवान चन्द्रप्रभु का चौथा पूर्वभव)
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धातकीखण्ड के कौशल नगरी में राजकुमार अजितसेन अपने पिता महाराज अजितंजय और माता महारानी अजितसेना के साथ सुखपूर्वक रहते थे । राजकुमार अजितसेन एक बार राजसभा में बैठे थे। आनंदमय चर्चा चल रही थी, इतने में उनके पूर्वभव का शत्रु कोई दुष्ट देव वहाँ आया और सभाजनों को मूर्छित करके राजकुमार का अपहरण कर ले गया । मूर्च्छा दूर होने पर राजा ने घबराकर सभा में देखा तो वहाँ राजकुमार को न देखकर उन्हें चितभ्रम हो गया कि अरे, यह क्या हुआ, राजकुमार कहाँ गया ? पुत्र के वियोग से राजा-रानी दोनों का संसार नीरस हो गया। अरे, हमारा पुत्र कहाँ चला गया ? अब हम उसे कब देखेंगे ? ऐसी चिन्ता में क्षण भर तो दोनों मूर्च्छित हो गये ।
थोड़ी देर में मूर्च्छा दूर होने पर राजा ने आँखें खोलकर ऊपर दृष्टि की तो अहाहा ! उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा। उनने देखा कि आकाश से एक महान तपस्वी ऋद्धिधारी मुनिराज उनकी ओर आ रहे हैं । मुनिराज को देखते ही राजा सब दुःख भूल गये, हृदय में आनंद का सागर उमड़ने लगा। सच ही है मुमुक्षु आत्मा, धर्मात्मा का संग होने से दुनिया के सब दुःख भूल जाता है ।
श्री मुनिराज ने राजा को मंगल आशीर्वाद दिया और कहा कि हे भव्य ! तुम चरमशरीरी हो। मैं आकाश मार्ग से जा रहा था तब मैंने देखा कि तुम पुत्र वियोग से दुःखी हो रहे हो। तुम्हारे गुणों के अनुराग से प्रेरित होकर मैं यहाँ आया हूँ । हे राजन् ! तुम तत्त्वज्ञानी हो, तुम्हें सब स्व-पर का भेदज्ञान है और तुम संसार का स्वरूप भले