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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-29 कहाँ वह कारागृह और कहाँ यह समवसरण - धर्मसभा ! उन दोनों संयोगों से विभक्त तथा निजगुणों से एकत्व - ऐसे निजस्वरूप का वह अनुभवन करती थी। वीर प्रभु की धर्मसभा में विद्यमान ३६००० आर्यिकाओं के संघ की वे चन्दनामाता अधिष्ठात्री थीं। कहाँ विद्याधर द्वारा अपहरण और कहाँ वीर प्रभु की शरण ! कहाँ वेश्या के हाथों बाजार में बिकने का प्रसंग और कहाँ ३६००० आर्यिकाओं में अधिष्ठात्री-पद! वाह रे उदयभाव तेरा खेल ! परन्तु धर्मात्मा का चैतन्यभाव अब तेरे विचित्र जाल में नहीं फँसेगा, वह तो सर्व प्रसंगों में तुझसे अलिप्त अपने
चैतन्यभाव में ही रहेगा....और मोक्ष को साधेगा। ___ एकबार प्रभु महावीर राजगृही के वैभारगिरि पर पधारे। परमात्मा महावीर को और साथ में अपनी लाड़ली बहिन चन्दना को देखकर महारानी चेलना के आनन्द का पार नहीं रहा। महाराजा श्रेणिक भी साथ थे। सर्वज्ञ महावीर को देखकर वे भी स्तब्ध रह गये। वाह ! मेरे इष्टदेव ! धन्य आपकी वीतरागता ! धन्य आपका अचिन्त्य धर्मवैभव!
तीर्थंकर भगवान महावीर की धर्मसभा समवसरण में बैठे राजा श्रेणिक के चित्त में एक शंका हुई कि चंदनबाला को इतना कष्ट क्यों उठाना पड़ा ? यदि आपके चित्त में भी इसका समाधान जानने की जिज्ञासा हो तो अगली कहानी अवश्य पढ़ें। ____ बाहर में मस्तक भले ही अग्नि में जल रहा हो, परन्तु अंदर आत्मा तो चैतन्य के परम शांतरस से ओतप्रोत है। शरीर जल रहा है फिर भी आत्मा स्थिर है, क्योंकि दोनों भिन्न हैं। जड़ और चेतन के भेदविज्ञान द्वारा चैतन्य की शांति में स्थित होकर घोर परिषह सहनेवाले मुनिराज, अत्यन्त शूरवीर गजकुमार ने, जिस दिन दीक्षा ली, उसी दिन शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों को भस्म कर केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया ? "अंत:कृत" केवली हुए, उनके केवलज्ञान और निर्वाण दोनों ही महोत्सव देवों ने एक साथ मनाये।
__ - गजकुमार कथा से साभार