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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/71 कुछ लोग अपने निर्धारित कुत्सित विचार के अनुसार कवि के पास आकर कहने लगे – “कल तो आप वेश्या के यहाँ नाच-गाने में बैठे शराब पी रहे थे, आज यहाँ शास्त्र पढ़ने का पाखण्ड रच रहे हो।" । ___ दूसरा बोला – कल दिन को अड्डे पर जुआ खेल रहे थे। आज यहाँ धर्मात्मा बनने का ढोंग रच रहे हैं। तीसरा बोला – इसका बाप भी शराबी, जुआरी था। चौथा कहने लगा – इसकी माँ तो पक्की वेश्या थी और आज कविजी बड़े धर्मात्मा की पूंछ बन रहे हैं। इतना सब कुछ कहने के बाद भी जब कवि कुछ भी नहीं बोले तो वे लोग स्वाध्याय की किताब छीनकर जाने लगे, तब कवि ने कहा - भैया, एक बात मेरी भी सुन लो-आपकी गुस्से में कितनी शक्ति क्षीण हो गई होगी, थोड़ा-सा ठंडा पानी पीकर और भोजन करके जाना। आप लोग ठीक ही तो कह रहे हैं। किसी भव में ऐसा सब कुछ तो हुआ होगा। यह तो आप जानते ही हैं कि ये सब खोटे काम दुर्गति के कारण हैं । इस जीव ने अनन्त बार ऐसा किया तभी तो संसार में पंचपरावर्तन कर दुःख पारहा है। इतना सुनते ही उन चारों पर घड़ों पानी पड़गया।वेलोगकविके पैर पकड़कर क्षमा याचना करने लगे और बोले – यह क्षमा आपने कहाँ से सीखी है ? कवि न समझाया - भाई, हमारी आत्मा तो क्षमा का/शान्ति का अखण्ड भण्डार है। हम जब पर्याय पर दृष्टि डालते हैं तो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, और जब द्रव्यस्वभाव को देखते हैं तो अखण्ड शक्ति सम्पन्न भगवान आत्मा ही दिखाई देता है, जो सब प्राणियों में विराजमान है। उस स्वभाव को भूलकर क्षणवर्ती पर्याय को अपना मानकर जीव पामर और दुःखी है। किन्तु यह राग-द्वेष विकार और संसार स्वभाव में नहीं है; क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता और विभाव का सदा सद्भाव नहीं रहता है। वे लोग कवि से इतने प्रभावित हुए कि उनके परमभक्त और सच्चे जैन धर्मानुयायी बन गये। धन्य है यह द्रव्यदृष्टि/सम्यग्दृष्टि की क्षमा। .
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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