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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/72 क्षमा वीरस्य भूषणम् (20) क्षमा वीरस्य भूषणम् सम्राट उदयन ने चण्डप्रद्योत को बन्दी बना लिया, किन्तु पर्युषण पर्व निकट आ जाने से उसने चण्डप्रद्योत से क्षमायाचना की। ___ चण्डप्रद्योत की आँखें आग उगलने लगीं- 'क्षमा ! मैं और क्षमा ! कभी नहीं। यह ढोंग है। सम्राट एक बन्दी राजा से क्षमा माँगे। यह और कौनसी नई चाल है उदयन ! अब क्या शेष है मेरे पास ? जिसे हथियाने के लिए यह स्वाँग रचा है ? कहाँ राजमहलों में सुख की नींद, कहाँ यह लोहे का पिंजड़ा? ओफ, श्रृंखलाओं में बाँधकर भी तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ ? हट जाओ मेरे सामने से। . जले पर नमक छिड़कने आए हो?' मैं सचमुच क्षमा माँगने आया हूँ प्रद्योत ! यह कोई चाल नहीं है ! चण्डप्रद्योत मैं तुम्ही से क्षमा माँगने आया हूँ। मैंने आज क्षमावाणी पर्व मनाया है। आज मैं सम्राट नहीं, केवल मानव हूँ, मानव ! मैंने प्राणीमात्र से क्षमा माँगी है प्रद्योत ! तुम भी मुझे क्षमा कर दो !' 'आह ! क्षमावाणी की भी यह विडम्बना ! उदयन ! जाओ अपने मित्र राजाओं से क्षमा माँगो ! अपने से बड़े राजाओं से क्षमा माँगो ! मेरी क्षमा से तुम्हारा क्या होने वाला है ?' 'नहीं प्रद्योत, ऐसा न कहो ! उदयन हाथ जोड़ता है। क्षमा कर दो मुझे। तुम्हारे बिना मेरी क्षमावाणी अधूरी रह जाएगी।' उदयन गिड़गिड़ाने लगा। 'तो सुनो सम्राट, क्षमा तब होती है, जब दोनों के मन से वैर विरोध निकल जाए। क्षमा तब होती है जब एक-दूसरे के मन स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाएँ। क्षमा तब होती है जब दोनों आपस में गले मिले। मैं श्रृंखलाओं में जकड़ा रहूँ और आप सिर पर सम्राट का मुकुट बाँधे रहें, क्या ऐसे में क्षमा सम्भव है ? क्षमावाणी मनाना है तो प्रद्योत सम्राट से सम्राट की तरह ही मिलेगा। सम्राट उदयन ने सैनिक को बँधन खोलने हेतु आदेश दिया।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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