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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/70 ___कुमार ने कहा - गुरुदेव ! आपके चरणों में सर्वस्व समर्पित है। बोलिये,
आपको गुरुदक्षिणा में क्या दूँ ? गुरु ने कहा- बेटे ! तुम एक वर्ष तक आक्रमण नहीं करोगे, मुझे यही गुरुदक्षिणा चाहिए। एक वर्ष तक तैयारी करो, उसके पश्चात् ही आक्रमण करना । जीवंधरकुमार ने सहर्ष गुरु आज्ञा स्वीकार की
और पूरी तैयारी करके एक वर्ष बाद चढ़ाई कर अपना राज्य प्राप्त कर लिया। ___ इसीप्रकार यह संसारी प्राणी अपने ध्रुव स्वभावी परमात्मा को भूलकर
और प्राप्त पर्याय को ही अपना सर्वस्व मानकर इस संसार में भटकता हुआ दु:ख भोगता रहता है। जब आचार्यदेव इसको सम्बोधित कर कहते हैं कि "हे भव्य प्राणी! तूपर्याय को गौणकर अपने द्रव्यस्वभाव को देख, अरे भव्यात्मा तुझे मात्र इस पर्याय को गौण करना है, इसका अभाव नहीं करना है। इसीप्रकार अपने द्रव्यस्वभाव को मुख्य करना है, उसे नवीन उत्पन्न नहीं करना है। तू तो स्वभाव से वर्तमान में ही अचिंत्य शक्तिशाली देव है, तू चैतन्य चिंतामणि रत्न है, तू ज्ञान और सुख का भंडार है, बाहर क्यों भटक रहा है? तू देव ही नहीं देवाधिदेवपरमात्मा है। द्रव्यस्वभाव से देखने पर सिद्ध जैसा त्रिकालशुद्ध आत्मा भीतर विराजमान है, जिसे कारणपरमात्मा कहते हैं। ऐसा सुनकर जो जागृत हो उठता है, वही अनंत सुखी कार्यपरमात्मा बन जाता है।"
द्रव्यदृष्टि की क्षमा (19) सम्यग्दृष्टि की क्षमा
कवि रत्नाकर गृहस्थ होते हुए भी अत्यन्त शान्त थे एवं शिथिलाचार और रूढियों के विरोधी थे। वे निरन्तर अपनी धर्म एवं साहित्य की साधना में तल्लीन रहते थे। दया, दान, जिनेन्द्र भक्ति, सन्तोषादि उनके विशेष गुण थे। इसीलिए उनकी सर्वत्र अच्छी प्रतिष्ठा एवं प्रतिभा की छाप अंकित थी। ___ कुछ लोग स्वभावतः ही असहिष्णु एवं विघ्न सन्तोषी होते हैं। उनको दूसरों की कीर्ति उन्नति नहीं सुहाती है। वे अपनी जलन और ईर्ष्या के कारण गुणी जनों का पराभव करके उनके ऊपर कीचड़ उछालने में आनन्द मानते हैं। ऐसे ही कुछ धर्म द्रोही लोगों ने कवि की पगड़ी उछालना चाही।