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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/62 मेरे पास चित्त को चुराने वाली देवांगना जैसी रमणीय रमणियाँ हैं। इससे बड़ा सुख क्या हो सकता है ? इसी कल्पना में करवट बदलते हुए उसका दूसरा चरण बनाया - 'सद्बांधवाः प्रणयपूर्ण विनम्रभृत्याः' मेरे पास प्यारे-प्यारे बन्धु-बांधव, पुत्र, मित्र और परम आज्ञाकारी मन्त्री, सेनापति एवं अनेक अन्य सेवकों की भीड़ कभी रंचमात्र दुःख का अनुभव नहीं होने देती। मेरे राजसी वैभव के कितने ठाठ हैं ? आगे बोले - __'बल्गन्ति दन्तिनिवहा तरलास्तुरंगा।' चिंघाड़ते हुए पर्वत जैसे विशाल हाथी, पवनवेग से भी तीव्रगामी बलिष्ठ, चंचल घोड़े आदि सुन्दर स्वर्गीय वैभव को मेरे समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। जिन्होंने इन भौतिक पदार्थों में सुख माना है, वे इसी प्रकार कल्पना के किले बनाते ही रहेंगे। तब श्लोक के चौथे चरण की पूर्ति के प्रयास में सोच रहे थे कि अब कौन सा वैभव मेरे पास शेष है, जिसका वर्णन इस श्लोक के चौथे चरण में किया जावे। तभी चोरी करने आया हुआ एक संस्कृतज्ञ चोर उनके पलंग के नीचे छुपा हुआ बोल उठा - ___ 'सम्मीलने नयनयो नहिं किञ्चिदस्ति।' हे राजन् ! यह वैभव का ठाठ आँख बन्द होने पर तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं जाने वाला है। सब यहीं पड़ा रह जायेगा। धर्म और विवेक के बिना यह सब वैभव आकुलता और तृष्णा की अग्नि में झुलसाता रहता है, यह सब दिवा स्वप्न हैं। यह सुनते ही कल्पना लोक में विचरण करनेवाले राजाभोज एक झटके के साथ यथार्थ की धरणी पर आ गिरे। उस चोर का उन्होंने बहुत-बहुत आभार माना और आत्म-जागरण के स्वर्णिम प्रभात में मोहनिद्रा के भंग होने से अब वे कुछ वास्तविक शान्ति का अनुभव करने लगे।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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