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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/61 मैं यह चाहता हूँ कि आपको वास्तविक शान्ति प्राप्त हो और वह तत्त्वनिर्णय से मिलती है, तत्त्वनिर्णय स्वाध्याय से होता है। अत: किसी तरह भी स्वाध्याय का समय अवश्य निकालना चाहिये। यह सम्पत्ति तो भाग्य से ही आती-जाती है, आप सोचते हैं “मैं कमा रहा हूँ" पर यह मिथ्या अभिमान व्यर्थ है। इस परद्रव्य को कौन कमा सकता है ? देखिये - एक घुड़सवार घोड़े को पानी पिलाने रहट पर लाया और पानी पिलाने लगा, किन्तु रहट की चर्र-चर्र आवाज से घोड़ा झिझका, तब सवार ने रहट बंद करने को कहा तो पानी आना बन्द हो गया। तब सवार ने कहा पानी क्यो बंद कर दिया, तो उसने कहा - यह चर्र-चर्र और पानी एक साथ आवेंगे। इसीप्रकार गृहस्थी एवं गृहस्थी की झंझटों के रहते हुए धर्म करना होगा। क्या हम दिवा ... (13) स्वप्न नहीं देख रहे हैं ? विश्व एक रंगमंच है, जहाँ पर हम सभी प्राणी स्वयं पात्र बनकर अभिनय कर रहे हैं और विश्व का अभिनय देख भी रहे हैं। उसमें मन को सुहावने लगनेवाले अभिनयों को इष्ट मान बैठते हैं, तथा मन के अरोचक दृश्यों में अनिष्ट बुद्धि कर बैठते हैं। यदि मात्र दर्शक ही बने रहते तो हमारी कुछ भी हानि नहीं थी, किन्तु हम तो उन सभी दृश्यों के विधाता बनकर अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं, जिसे नितांत असम्भव कार्य करने की अनधिकार चेष्टा ही कह सकते हैं। ___ हम अपने को ही नहीं बदल पाते, किन्तु विश्व को बदलना चाहते हैं। यदि कभी काकतालीय न्याय से वे दृश्य अनुकूल से लगने लगते हैं, तो उसमें हम सुख के स्वप्न देखते हैं, जबकि वे क्षणभंगुर हैं। ___ साहित्य, सौन्दर्य और कलाप्रेमी राजाभोज रत्नजड़ित स्वर्णपर्यंक पर विश्राम करते हुए निद्रा-भंग होने से कुछ ऐसे ही दिवास्वप्न देख रहे थे - अपने भौतिक वैभव की विशालता और अनुकूलता पर हर्षातिरेक में एक श्लोक की रचना करने लगे- 'चेतोहरा: युवतयः सहृदोऽनुकूला:'
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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