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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/63 समदृष्टि (14) सहजता कई शताब्दि पूर्व दिल्ली सम्राट के प्रधानमंत्री का नाम जिनविजय था। वह बड़ा विद्वान, कुशल शासक एवं तत्त्ववेत्ता था। शासन का भार जिनविजय पर ही था। इसलिये राजा, प्रजा सबको वह प्रिय था। उन्हें सब राजा जिनविजय कहते थे। वह वैभव सम्पन्न होकर भी बड़ा धर्मात्मा एवं विरागप्रिय था।वह बड़े मनोहारी आध्यात्मिक पद बनाया करता था, जिससे उसकी बड़ी. प्रसिद्धि हो गई थी। एक ज्ञानघन नामक तत्त्वज्ञानी इनकी कविताओं से बहुत प्रभावित हुआ। ज्ञानघन इनसे मिलने दिल्ली आया। उसने हरएक से जिनविजय का पता पूछा, किन्तु किसी ने नहीं बताया। अन्त में एक शास्त्रसभा में जिनविजय के बनाये पद . गाये जा रहे थे। ज्ञानघन ने वहीं पहुँच कर पूछा – भाईयो ! जिनका बनाया हुआ यह पद है, आप उनका पता बता सकते हो ? उत्तर मिला – ‘वह राजा जिनविजय हैं, वे दिल्ली सम्राट के प्रधानमंत्री हैं, किले में उनका महल है।' ज्ञानघन को विश्वास नहीं हुआ कि इतना विशद विद्वान प्रधानमंत्री हो सकता है। वह सीधा राजा जिनविजय के पास पहुँचा। चर्चा करने के बाद ज्ञानघन ने कहा – मंत्रीजी ! आप इतने ज्ञानी होते हुए इस पचड़े में कैसे फंस गये ? इस दलदल से निकलकर मेरे साथ चलो। जिनविजय ने कहा- “पुण्य की सजा भोग रहा हूँ।" इतना कहते ही उठकर जिनविजय उसके साथ चल दिये। ये दोनों कई दिनों के भूखे-प्यासे एक गाँव में पहुंचे। RSS WER--- AL । - --
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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