SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 58 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ अज्ञानी के पूर्व पुण्य के उदय से बाह्य अनुकूलता हो तो भी वह वास्तव में दुःखी ही है। ज्ञानी के कदाचित् पाप के उदय से बाह्य में प्रतिकूलता हो तो भी वह वास्तव में सुखी ही है। अभय-क्या प्रतिकूलता में ज्ञानी की श्रद्धा डिग नहीं जाती होगी? __ चेलना- नहीं पुत्र ! बिल्कुल नहीं, बाहर में कैसी भी प्रतिकूलता हो तो भी समकिती धर्मात्मा के सम्यक्-श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान जरा भी दूषित नहीं होता। अरे! तीनलोक में खलबली मच जाए तो भी समकिती अपने स्वरूप की श्रद्धा से जरा भी नहीं डिगते। ___अभय-अहो माता ! धन्य हैं ऐसे समकिती सन्तों को ! ऐसे सुखी समकिती का अतीन्द्रिय आनन्द कैसा होगा ? चेलना- अहो, पुत्र अभय ! वह समस्त इन्द्रिय सुखों से विलक्षण जाति का आनन्द होता है। जैसा सिद्ध भगवान का आनन्द, जैसा वीतरागी मुनिवरों का आनन्द, वैसा ही समकिती का आनन्द है। सिद्ध भगवान के समान आनन्द का स्वाद समकिती ने चख लिया है। ___अभय - माता ! इस सम्यग्दर्शन के लिए कैसा प्रयत्न होता है, वह मुझे भी विस्तार से समझाओ। चेलना - तूने बहुत सुन्दर और अच्छा प्रश्न पूछा । सुन, पहले तो अन्तर में आत्मा की इतनी रुचि जागे कि आत्मा की बात के अलावा उसे दूसरी किसी भी बात में रुचि न लगे और सद्गुरु का समागम करके तत्त्व का बराबर निर्णय करे, बाद में दिन-रात अन्तर में गहरा-गहरा मंथन करके भेदज्ञान का अभ्यास करे। बार-बार इस भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते जब हृदय में उत्कृष्ट आत्म-स्वभाव की महिमा आये तब उसका निर्विकल्प अनुभव होता है, वेदन होता है। पुत्र ! सम्यग्दर्शन प्रकट करने के लिए ऐसा प्रयत्न होता है। इसकी महिमा अपार है। अभय - अहो माता ! सग्यग्दर्शन की महिमा समझाने की तो
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy