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________________ 57 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ अभय - माता ! धर्मात्माओं पर भी संकट क्यों आते हैं ? चेलना-पुत्र, पूर्व में जिसने देव-गुरु-धर्म की कोई विराधना की हो, उसी कारण उसे ऐसी प्रतिकूलता के प्रसंग आते हैं। ___अभय - हे माता ! प्रतिकूल संयोगों में भी जीव अपने स्वरूप की साधनारूपी धर्म कर सकता है ? चेलना - हाँ पुत्र ! कैसे भी प्रतिकूल संयोग हों, जीव अपने स्वरूप की साधनारूपी धर्म कर सकता है, धर्म करने में बाहर के कोई संयोग जीव को बाधक नहीं होते। अभय – पर अनुकूल संयोग हो तो धर्म करने में वह कुछ मदद तो मिलती है न ? चेलना - नहीं पुत्र ! धर्म तो आत्मा के आधार से है। संयोग के आधार से धर्म नहीं। संयोग का तो आत्मा में अभाव है। अभय – फिर अनुकूल और प्रतिकूल संयोग क्यों मिलते है ? चेलना - यह तो पूर्व भव में जैसे पुण्य-पाप भाव जीव ने किए हों वैसे संयोग अभी मिलते हैं। पुण्य के फल में अनुकूल संयोग मिलते हैं। पाप के फल में प्रतिकूल संयोग मिलते हैं, परन्तु धर्म तो दोनों से भिन्न वस्तु है। अभय - माताजी ! इस विचित्र संसार में कोई अधर्मी जीव भी सुखी दिखता है और कोई धर्मी जीव भी दुःखी दिखता है। इसका क्या कारण है ? चेलना-पुत्र! अज्ञानी जीव को सच्चा सुख होता ही नहीं। आत्मा का अतीन्द्रिय सुख ही सच्चा सुख है। और वह ज्ञानी के ही होता है, अज्ञानी के तो उसकी गंध भी नहीं होती। अधर्मी जीवों के जो सुख दिखता है, वह वास्तव में सुख नहीं, मात्र कल्पना है, सुखाभास है।
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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