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________________ 33 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ उत्तर यह मिला कि इसी आर्यखण्ड में एक वृन्दारक नाम का वन है। उसमें एक मुनिवर आगम का पाठ किया करते थे और उसी वन में रहने वाला एक हिरण प्रतिदिन उसे सुना करता था। वह हिरण शुभ परिणामों से आयु पूर्ण कर उस पुण्य के फल से ऐरावत क्षेत्र के स्वच्छपुर नगर में विरहित नामक वणिक की शीलवती स्त्री के मेघरत्न नाम का पुत्र हुआ। वहाँ पर पुण्य प्रताप से सभी प्रकार के सांसारिक सुख भोगकर अणुव्रत धारण किये, उसके फलस्वरूप वहाँ से च्युत होकर ईशान स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ के पुण्योदय जन्य वैभव में वे लुभाये नहीं, वहाँ पर भी अपनी पूर्व की आराधना अखण्ड रूप से आराधते हुए दैवी सुख भोग कर देवायु पूर्ण कर पूर्वविदेह के कोकिलाग्राम में कांतशोक वणिक की रत्नाकिनी नामक स्त्री के सुप्रभ नाम का पुत्र हुआ। एक दिन उसे श्रीगुरु का सानिध्य प्राप्त हुआ, फिर क्या था भावना तो भा ही रहे थे कि “घर को छोड़ वन जाऊँ, मैं भी वह दिन कब पाऊँ।" गुरुराज से धर्म श्रवण कर तत्काल संसार, देह, भोगों से विरक्ति जाग उठी। फलस्वरूप उन्होंने पारमेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर ली और बहुत काल तक उग्र तपस्या करके सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में गये और वहाँ से च्युत होकर यहाँयह चमत्कारी महाप्रभावशाली बालि के रूप उत्पन्न हुए। ऐसा नहीं है कि उस होनहार हिरण ने श्रीगुरु के मुखारविंद से मात्र शब्द ही सुने हों, उसने भावों को भी समझ लिया, उसे अन्तरंग से जिनगुरु एवं जिनवाणी के प्रति बहुमान, भक्ति थी। उन संस्कारों का फल यह हुआ कि दूसरे ही भव में वह मनुष्य हुआ और अणुव्रत धारण कर मोक्षमार्गी बन गया, इतना ही नहीं उसने अपनी आराधना अविरल रूप से चालू रखी, उसी के फलस्वरूप पाँचवें भव में वह बालि राजा हुआ और इसी भव से साधनापूर्ण करके सिद्धत्व को प्राप्त किया। कहा भी है - धन्य-धन्य है घड़ी आज की, जिनधुनि श्रवन परी। तत्त्व प्रतीति भई अबकों , मिथ्यादृष्टि टरी॥
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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