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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ जामैं लोकालोक के सुभाव प्रतिभासे सब, जगी ग्यान सकति विमल जैसी आरसी। दर्शन उद्योत लीयौ अंतराय अंत कीयौ, गयौ महा मोह भयौ परम महारसी॥ संन्यासी सहज जोगी जोगसौं उदासी जामैं, प्रकृति पचासी लगि रही जरि छारसी। सोहै घट मंदिर मैं चेतन प्रगट रूप, ऐसे जिनराज ताहि बंदत बनारीस॥ अभी तो इन्द्रगण केवलज्ञानोत्सव मना ही रहे थे कि प्रभु तृतीय शुक्लध्यान से योग निरोध कर अयोगी गुणस्थान में पहुँच गये। चतुर्थ शुक्लध्यान से चार अघाति कर्मों का नाश कर पाँच स्वरों के उच्चारण जितने काल के बाद प्रभु अब शरीर रहित हो ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोकाग्र में पहुँच गये। ‘णमो सिद्धाणं।' बिन कर्म, परम, विशुद्ध जन्म, जरा, मरण से हीन हैं। ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन हैं। निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्य-पाप विहीन हैं। निश्चल, निरालम्बन, अमर, पुनरागमन से हीन हैं। एक बार श्री सकलभूषण केवली से विभीषण ने विनयपूर्वक पूछा - हे भगवन् ! इसप्रकार के महाप्रभावशाली यह बालिदेव किस पुण्य के फल से उत्पन्न हुए हैं ? जगत को आश्चर्यचकित कर देने वाले प्रभाव का कुछ कारण तो अवश्य होगा। कृपया हमें इसका समाधान हो।
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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