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जैनधर्म की कहानियाँ भाग- १०/५०
विचार तो कर! यदि इस भव के बाद आने वाले दूसरे भव का यथार्थ विचार करे तो क्षणिक देहदृष्टि छूटकर चैतन्य की दृष्टि हो जाये। भाई! यहाँ थोड़े समय की थोड़ी-सी प्रतिकूलता में भी आकुल-व्याकुल हो जाता है तो फिर दूसरे सम्पूर्ण भव में तेरा क्या होगा ? - उसका तों विचार कर। यदि इस भव में आत्मा की दरकार नहीं करेगा तो तेरा आत्मा अनन्त संसार में कहीं खो जायेगा। इसलिये हे भाई! यदि तुझे सचमुच दुःख अच्छा न लगता हो तो इस देह से भिन्न आत्मा को सत्समागम द्वारा पहिचान ।
ज्ञानी के गज दूसरे
स्कूल में पढ़नेवाला नौ वर्ष का एक बालक रविवार का दिन होने से घर पर ही था, उसके पिता बाजार से एक मलमल का थान लाये । पुत्र ने पिता से पूछा कि यह थान कितने हाथ का है?
पिता ने उत्तर दिया कि यह पचास हाथ का है। लड़के ने उस थान को अपने हाथ से मापकर कहा कि यह थान तो पचहत्तर हाथ का है। आपकी बात झूठ है। तब पिता ने कहा- भाई ! हमारे लेन-देन के काम में तेरे हाथ का माप नहीं चलता।
उसीप्रकार यहाँ ज्ञानी कहते हैं कि- संयोगदृष्टि वाले, बाह्यदृष्टि वाले अज्ञानी की बालबुद्धि में से उत्पन्न हुई कुयुक्ति अतीन्द्रिय आत्मस्वभाव को मापने / समझने में काम नहीं आती। धर्मात्माओं के हृदय को अज्ञानी नहीं माप सकते।
इसलिये ज्ञानी को पहिचानने के लिये अपूर्वदृष्टि से प्रथम उस मार्ग का परिचय करो, रुचि बढ़ाओ, विशाल बुद्धि,. सरलता, मध्यस्थता और जितेन्द्रियता इत्यादि गुण प्रगट करो ।