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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग- १० / २९ से प्रेरित हो उनके साथ आई । शत्रुघ्न ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनिवरों से धर्म का श्रवण किया। मुनिवरों ने कहा- "यह संसार असार है, एक वीतरागता ही सारभूत है। जिनदेव द्वारा कहा गया वीतराग मार्ग हो जगत के जीवों को शरणभूत है। जिनधर्म के अनुसार उसकी आराधना करो। " उपदेश सुनकर शत्रुघ्न कुमार विनय से कहने लगे कि—“है देव! आपके पदार्पण से मथुरा नगरी का महान उपसर्ग मरी रोग दूर हुआ, दुर्भिक्ष गया और सुभिक्ष का आगमन हुआ, सर्व जीवों को शांति एवं धर्मवृद्धि हुई, इसलिये हे प्रभो! कृपा करके आप कुछ दिनों तक यहीं विराजें।" तब श्री मुनिराज ने कहा कि हे शत्रुघ्न ! जिन - आज्ञा के अनुसार अधिक समय तक रहना योग्य नहीं है, अब हमारे चातुर्मास का काल पूर्ण हुआ..... मुनि तो अप्रतिबद्ध - विहारी होते हैं, यह चौथा काल धर्म के उद्योत का है, इसमें अनेक जीव मुनिधर्म धारण करते हैं, जिन - आज्ञा का पालन करते हैं और महामुनि केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष जाते हैं। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ तो मोक्ष पधारे, अब इस भरत क्षेत्र में नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान - यह चार तीर्थंकर होंगे। . - हे भव्य ! जिनशासन के प्रभाव से मथुरा नगरी का उपद्रव दूर हो गया है, अब मथुरा के समस्त निवासियों को जिनधर्म में तत्पर होना, दया पालन करना, साधर्मियों के प्रति वात्सल्य एवं जिनशासन की प्रभावना करना घर-घर में जिनबिम्बों की स्थापना, जिनपूजन तथा अभिषेक की प्रवृत्ति करना चाहिए उससे सर्वत्र शांति होगी। जो जिनधर्म की आराधना नहीं करेगा, उसी पर आपदा आयेगी; किन्तु जो जिनधर्म का आराधन करेंगे, उनसे तो आपदा ऐसी भागेगी, जिसप्रकार गरुड़ को देखकर नागिन भागती है। इसलिये जिनधर्म की आराधना में सर्व प्रकार से तत्पर रहना..
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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