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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/२८ चारण मुनियों की महिमा सुनकर, श्रावक शिरोमणि अर्हदत्त सेठ खेदखिन्न होकर खूब पश्चाताप करने लगे कि "अरे! मुझे धिक्कार है... मैं मुनिवरों को नहीं पहिचान सका। अपने आँगन में आये हुए मुनि भगवन्तों का मैंने आदरसत्कार नहीं किया...हाय! मुझ जैसा अधम कौन होगा? वे मुनिवर आहार के हेतु मेरे ऑगन में पधारे, किन्तु मैंने उन्हें नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान नहीं दिया....मुझ जैसा पामर अज्ञानी दूसरा कौन होगा कि मैं आंगन में आये हुए संतो को नहीं पहिचान सका, चारण मुनिवरों की तो रीति यही है कि चातुर्मास में निवास तो एक स्थान पर करें और आहार किसी भी नगर में जाकर लें। चारणऋद्धि के प्रभाव से उनके शरीर द्वारा जीवों को बाधा नहीं पहुँचती। अहा! जबतक मैं उन चारणऋद्धि धारी मुनिभगवन्तों के दर्शन नहीं करूँगा, तबतक मेरे मन का संताप नहीं मिट सकता।''इसप्रकार पश्चाताप पूर्वक अत्यन्त भक्तिपूर्वक चित्त से अर्हदत्त सेठ सातों मुनिवरों के दर्शन की कामना करने लगे। कार्तिक पूर्णिमा निकट आते ही सम्यग्दृष्टि अर्हदत्त सेठ ने समस्त परिवार सहित सप्तर्षि मुनिवरों की वन्दना-पूजा के लिये अयोध्या से मथुरा की ओर प्रयाण किया। जिन्होंने मुनिवरों की अपार महिमा को जाना है, राजा के समान जिनका वैभव है- ऐसे अर्हदत्त सेठ बारम्बार अपनी निन्दा और मुनिवरों की प्रशंसा करते हुए रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदलों की विशाल सेनासहित योगीश्वरों की पूजा के लिये मथुरा की ओर चल पड़े। महाविभूतिसहित और शुभध्यान में तत्पर अर्हदत्त सेठ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन मुनिवरों के चरणों में आ पहँचे। उन धर्मात्मा ने विधिपूर्वक सप्तर्षि मुनिवरों की वंदना एवं पूजा की तथा मथुरा नगरी को अनेक प्रकार से सजाया। मथुरा नगरी स्वर्ग के समान सुशोभित हो गई। यह सब वृतान्त सुनकर शत्रुघ्न कुमार भी तुरन्त सप्तर्षि मुनिवरों के समीप आ पहुचे और उनकी माता सुप्रभा भी मुनिभक्ति
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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