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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७२ विद्वान नगर में जैनों के जैनों को वे समझाते हैं। होता लेकिन ऐसा उनके कहने में सब आ जाते हैं ।। लगता है मुझको बौद्धों पर भी असर पड़ेगा निश्चित ही । इसलिये कार्यवाही जल्दी से जल्दी तुम करदो अब ही । फिर क्या था उन दोनों को नृप इज्जत के साथ बुलाते हैं। उनका यश गा-गा कर उनको यह अपना पाठ पढ़ाते हैं ।। राजा बोले तुम बुद्धिमान गुणवान समझ में आते हो। फिर बौद्ध क्यों नहीं बन जाते क्यों जैनों में दुख पाते हो । जैनों की स्याद्वाद कथनी देखो तो कितनी थोथी है। वे कहते जीव नहीं मरता केवल पर्याय विनशती है। तातें भोगों को हेय कहें वैराग्य दशा को उपादेय। बाकी में राग-द्वेष तजकर उनको कहते ज्ञानस्थ ज्ञेय || तब वीतरागता आवेगी अरु मोक्ष दशा पा जाओगे। सारे जीवन में दुख ही दुख फिर सुक्ख कहाँ से पाओगे ।। नहिं नहिं ऐसा ही है राजन् तुम जिसको थोथी कहते हो। वह थोथी नहीं बल्कि उसके बिन वस्तु नहीं पा सकते हो ।। वस्तु में गुण होते अनन्त कहने में क्रम से आते हैं। इसलिए वहाँ पर स्याद्वाद ही वचन काम में आते हैं ।। जैसे मानव है एक किन्तु उसको कइ ढ़ंग से जग जाने । मामा चाचा पापा दादा भानेज सुसर साला माने || इस तरह जीव नहिं मरता है पर्याय बदलता रहता है। नारक नर पशु गति पाता है अज्ञानी नाश मानता है || सुख का स्वरूप तुम नहिं समझे इसलिये हमें समझाते हो । यह भोग रोग की दवा जिसे तुम अनुपम सुक्ख बताते हो || जब भूख रोग जिसको उठता वह रूखा-सूखा खा लेता । पर वही भूख जब शांत होय तब षट्स व्यंजन नहिं खाता ।। यह जैनधर्म वह अमृत है जो सब रोगों का नाशक है। जो सब रोगों का नाश चहे वह इसका होय उपासक है ।।
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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