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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७३ फिर भूख प्यास क्या शीत घाम कुछ भी न सताने पाते हैं। जब क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग अरु द्वेष सभी मर जाते हैं ।। फिर कहाँ जरूरत है इसको इसने तो निज को जान लिया। यह भोग रोग सब तन के हैं मैं तो अविनाशी शुद्ध जिया ।। खाने-पीने की हालत यह संयोग अवस्था के कारण। इसलिये अपावन होय रहा था मैं अभक्ष्य का कर भक्षण । । तुम भी अभक्ष्य का त्याग करो जो मुक्ति आप को प्यारी है। या लाख चौरासी यौनी में भ्रमणें की ही तैयारी है ।। बस-बस करदे वकवास बंद तू हमको क्या समझा सकता। तुझको कुछ खबर नहीं बालक मैं मृत्यु दंड भी दे सकता ।। समझाता हूँ इकबार तुम्हें तुम अच्छी तरह सोच लेना । शासन यहाँ बौद्धों का समझे बन करके बौद्ध तुम्हें रहना ।। ले जाओ इन्हें जेल में बस अगले दिन हाजिर करना अब । क्या कहते हैं सब सुन लेंगे निर्णय है मेरे हाथों सब । ( दोहा ) प्रात होत जब नृपति ने बुलवाये दोऊ भ्रात। समझा कर कहने लगे जो चाहो कुशलात ।। अब भी सोचो समझो बच्चो हठ छोड़ो जैन धर्मियों की । यश पाओ समझो बौद्धों को जय बोलो क्षणिकवादियों की ।। यह जीव क्षणिक सिद्धांत मार्ग को जब तक नहिं अपनाता है। तब तक ही वह भ्रम में रह कर के त्याग-त्याग चिल्लाता है ।। क्षण-क्षण में आता नया जीव अरु पूर्व जीव नश जाता है। फिर त्यागी भोगी कौन और फिर किसका किससे नाता है ।। इसलिये क्षणिक को समझ आज जीवन भर मौज उड़ाना है। जीवित हैं जब तक जीवन है मरने पर नहीं ठिकाना है ।। फिर कोई पुनर्भव नहिं होता निश्चय क्या ये ही निश्चय है। मानो मेरी हठ छोड़ो अब सुख जीवन भर फिर अक्षय है ।।
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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