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________________ अकलंक निकलंक चरित्र __ मंगलाचरण वंदू श्री जिनराज के चरण कमल चित लाय। निकलंक और अकलंक की चर्चा लिखू बनाय।। अनुभव में आई जिसी लिखी जिनागम देख। धर्म प्रचारक हो गये जैनागम में लेख।। (दोहा) मानखेटपुर नगर में जन्में दोऊ भ्रात। माता श्री पद्मावति अरु पुरुषोत्तम तात।। एक समय उस नगर में आये श्री मुनिराज। दर्शन हित आई तभी सारी जैन समाज।। पुरुषोत्तम पद्मावती ब्रह्मचर्य तहँ लेंय। दोऊ पुत्र तब पूछते हमहु ग्रहण कर लेंय।। मात-पिता को भेद नहिं यह जाने अन्जान। हंस कर देखें प्यार से इन स्वीकृति ली मान।। मात-पिता शादी रचें और कहें समझाय। तुमने व्रत दिलवाइयो, पाले छोडें नाहिं।। हंसी-हंसी की बात वह, सचमुच में नहिं पुत्र। तातें ब्याह कराय लो फिर धरियो चारित्र।। समझाने पर अकलंक तथा निकलंक दोनों हैं कहते। सचमुच वैराग्य जगा हमको अब गृह में भी नहिं रह सकते।। तुम क्यों शादी की बात करो शादी संसार बढ़ाती है। संसार से होना मुक्त हमें बस वीतरागता भाती है।। हम ब्रह्मचर्य व्रत धारन कर अब गांव-गांव में घूमेंगे। अरु धर्म प्रचारक बन करके फिर धर्म का झूला झूलेंगे।। जन-जन में तभी प्रचार हुआ मशहूर हुए दोनों भाई। तब बौद्ध व्यक्तियों ने जाकर राजा को स्थिति समझाई।।
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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