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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/८४ हनुमानजी का वैराग्य-प्रसंग अंधेरी रात है, आकाश में तारागण जगमगा रहे हैं और अद्भुत. अध्यात्म चर्चा में सभी मग्न हैं....इतने में ही अचानक आकाश से घरररघररर की आवाज करता हुआ एक तारा टूटा और चारों तरफ से बिजली जैसी चमकी। IN Cai BaSaransomnia % E -. ... बस! तारा टूटते हीमानो हनुमानजी का संसार ही टूट गया हो ! तारे को गिरता देखते ही हनुमानजी को भी तुरंत संसार से विरक्ति आ गई। जगत की क्षणभंगुरता देखते ही वे देहादिक संयोगों की अनित्यता का चिंतन करने लगे। परम वैराग्य से बारह भावनायें भाने लगे। अरे, बिजली की चमक के समान इन संयोगों और रागादि की क्षणभंगुरता – ऐसे क्षणभंगुर संसार में चैतन्य तत्त्व के सिवाय दूसरा कौन शरण है ? . ये राजपाट भोग सामग्री कुछ भी इस जीव को शरण या साथीदार नहीं; रत्नत्रय की पूर्णता ही शरणरूप, साथीदार और अविनाशी मोक्षपद को देने वाली है। हनुमानजी विचारते हैं- 'बस अब तो मुझे शीघ्र रत्नत्रय की पूर्णता का ही उद्यम कर्तव्य है।" हनुमानजी ने अपनी भावना मंत्रियों और रानियों को बतलाई - "अब मैं इस संसार को छोड़कर मुनि होना चाहता हूँ, और इस संसार का छेद करके मोक्षपद प्राप्त करना चाहता हूँ....अरे अरे ! राग के वश जीव
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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