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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/८३ अहा ! मेरु जैसा महातीर्थ, जिसमें सर्वज्ञ-वीतराग जैसे पूज्य देव, उसमें भी हनुमान जैसे चरमशरीरी साधक पुजारी – उस महान पूजा की क्या बात करना ? बहुत से देव और विद्याधर आश्चर्य पाकर जैनधर्म की महिमा से सम्यक्त्व पाये। सभी के हृदय और नेत्र हर्षित हो उठे। पूजन के बाद हाथ में वीणा लेकर हनुमानजी ने अद्भुत भक्ति से जिनगुण गाये....कि अप्सरायें भी भक्ति से नाचने लगीं। ऐसा लगता था मानो वीतरागी होते-होते बाकी बचा हुआ सारा का सारा शुभराग यहाँ उडेल दिया हो ! इसप्रकार हनुमानजी ने खूब-खूब भक्ति की। देहभाव से पार होकर आत्मभावों में तन्मयता पूर्वक होने वाली ऐसी अद्भुत भक्ति ऐसे मोक्ष के साधकों की ही होती है। अहो, ऐसी जिनेन्द्र-भक्ति देखने वालों का भी जन्म सफल हो गया। वाह रे वाह, तद्भव मोक्षगामी हनुमान ! तुम्हारी अद्भुत जिनभक्ति ! ये भव्य जीवों को रोमांचित एवं उल्लसित करके मोक्ष का उत्साह जगाती है।
इस प्रकार हनुमानजी ने मेरुतीर्थ पर अति भक्तिभाव पूर्वक दर्शनपूजन-भक्ति सहित यात्रा की। अनेक मुनिराज वहाँ विराजमान थे, उनके भी दर्शन किये तथा उनसे शुद्धात्मा का उपदेश सुना। हजारों जीवों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया। ध्यानस्थ वीतरागी मुनिराजों को देखकर हनुमान भी ध्यान करने लगे तथा स्वरूप एकाग्रता द्वारा आत्मा को ध्याते-ध्याते कोई परम अद्भुत निर्विकल्प आनंद की अनुभूति की ! अहा ! उसकी तो क्या बात !!
इसप्रकार इष्ट ध्येय को पाकर और मुनिवरों का मंगल आशीष लेकर हनुमानजी ने मेरु पर्वत से वापिस भरत क्षेत्र में (स्वस्थान में) आने की विदाई ली। रास्ते में सुर-दुन्दुभि नाम के पर्वत पर रात्रि वास किया। रात में सभी आनंदपूर्वक तीर्थयात्रा और जिनेन्द्र महिमा की चर्चा करते थे....सर्वज्ञदेव के स्वरूप की पहिचान होने से आत्मा का शुद्ध चैतन्यस्वरूप किस प्रकार पहचाना जाता है ? राग तथा ज्ञान का भेदज्ञान होकर जीव को अपूर्व सम्यक्त्व किस प्रकार प्रगट होता है ? इन बातों को हनुमानजी अत्यंत प्रमोदपूर्वक समझाते थे।