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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/८५ संसार में दुःख भोगता है, वीतरागता के सिवाय कहीं सुख नहीं हैं।"
इसलिए न करना राग किंचित् कहीं भी मोक्षेच्छु को। वीतराग होकर इस तरह, वह भव्य भवसागर तिरे।.
अरे रे, मूर्ख जीव अल्पकाल के विषय-भोगों के पीछे अनन्त काल का दुःख भोगते हैं, परन्तु विषयों में सुख कैसा ? यह तो मात्र कल्पना है। देवलोक के भोगों में भी आत्मा का सुख नहीं। चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख जीव का स्वभाव है और यह सुख सदाकाल टिकने वाला है। अत: अब मैं मुनि होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख की पूर्णता को -साधूंगा।
महाराजा हनुमान ऐसी भावनापूर्वक मुनि होने को तैयार हो गये। मंत्रियों ने बहुत समझाया, रानियों ने भी अपनी अश्रुभीगी पलकों से उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की; परन्तु हनुमान को उनकी दृढ़ता से उन्हें कौन डिगा सकता है ? दृढ़चित्तवाले हनुमान वैराग्य भावना से जरा भी नहीं डिगे....वे कहने लगे -
“हे मंत्रियो, हे रानियो ? वृथा है यह मोह इसे छोड़ो, इस संसार के भयंकर दुःखों को क्या तुम नहीं जानते ? मोह के वश होकर जीव ने संसार में अनेक भव धारण कर परिभ्रमण किया। अब तो बस हो इस संसार से ! मुझे बहुत समय से मुनि होने की भावना तो थी ही, परन्तु मुझे माता का मोह विशेष था, उस मोह का बंधन में तोड़ नहीं सकता था, अब तो जब मेरी माता अंजना ही मेरा मोह तोड़कर अर्जिका बन गई हैं, तब मेरा भी मोह टूट गया है। मेरी माता ही मानो मुझे आवाज देकर वैराग्यमार्ग में बुला रही हैं। राग का एक अंश भी अब मुझे सुहाता नहीं।
- हे रानियो ! तुम शांत होओ; रुदन करके व्यर्थ में ही आर्तध्यान करके आत्मा का अहित न करो....हे मंत्रियो ! तुम राज्यपुत्र का राज्याभिषेक करके राज्य-व्यवस्था संभालना ! हम तो अब जिन-दीक्षा लेकर मुनिवरों के साथ रहेंगे और शुद्धोपयोग द्वारा आत्मा को ध्याकर केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। एक क्षण का भी प्रमाद अब मुझे सुहाता नहीं।" ।