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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/८२ शोभा देखते ही आश्चर्य होता है और उनमें विराजमान भगवान की वीतरागता देखते ही आश्चर्य से भी पार ऐसी चैतन्यवृत्तियाँ जाग उठती हैं - ऐसे तीनों वनों में आनंद से दर्शन करके जय-जयकार करते सभी मेरु के सबसे ऊपर चौथे और अंतिम पांडुकवन में आये । कितने ही देव भी ī हनुमानजी के साथ मेरु की यात्रा में भाग ले रहे हैं। हनुमानजी सभी को बतलाते हैं . “देखो, ये स्फटिक की पांडुकशिला ! ये महापूज्य है । यहाँ भरत क्षेत्र के तीर्थंकर भगवंतों का जन्माभिषेक होता है, इससे यह कल्याणक तीर्थभूमि है। अनंत मुनिवर यहाँ से ही मोक्ष पधारे हैं, इससे ये शाश्वत सिद्धक्षेत्र भी है । यहाँ परम अद्भुत जिनालयों में जगमग करते हुए रत्नमय जिनबिम्ब हैं, मानो अभी - अभी केवलज्ञान खिला ( प्रगट हुआ ) हो - ऐसे शोभित हो रहे हैं और आत्मा के पूर्ण स्वरूप को प्रकाशित करते हैं, छत्र-चँवर-भामंडल वगैरह की दिव्य शोभा से इस पांडुकवन के मंदिर ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो मेरुपर्वत का रत्नजड़ित मुकुट हो ?" (वाचक ! अभी हनुमानजी वगैरह जिस स्थान की यात्रा कर रहे हैं, वह कितना ऊँचा है ? क्या इसका पता है ? सुनो, मेरुपर्वत एक लाख योजन ऊँचा है, उसके ऊपर के भाग में पांडुकवन है। सूर्य-चन्द्र तो पूरे एक हजार योजन ऊँचे भी नहीं, ये तो सूर्य चन्द्र से भी अधिक लगभग ९९००० योजन ऊँचे (अर्थात् लगभग ४० करोड़ मील ऊँचे ) हैं । अभी अपने कथा-नायक हनुमानजी वहीं की आनंद से यात्रा कर रहे हैं । हनुमान तथा समस्त विद्याधरों को मंदिरों के दर्शन से अति ही हर्ष हुआ; बहुत भाव से जिनगुण गाते-गाते मंदिरों की प्रदक्षिणा की। जैसे सूर्य-चन्द्र मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं, वैसे ही सूर्य समान तेजस्वी हनुमान वगैरह एक लाख योजना जितनी ऊँचाई पर मेरु की प्रदक्षिणा करने लगे, बारम्बार दर्शन करने लगे; बाद में सभी ने कल्पवृक्षों के पुष्पों से और रत्नों अर्ध्य द्वारा महान विनय से पूजन की ।
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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