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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७७ अंजना – “बेटी ! सम्यक्त्व होने पर भी संसार के चित्र-विचित्र प्रसंगों में अनेक प्रकार के संक्लेश भाव आ जाते हैं, उससे भी पार होकर चैतन्य की शांति में लीन हो जाऊँ - ऐसी ही अब भावना है।" सीता – “हाँ, माता ! अब ऐसा प्रसंग बहुत दूर नहीं, अर्जिका होने की आपकी भावना जल्दी पूरी होगी।" ऐसी आनन्द पूर्वक चर्चा-वार्ता करते हुए कितने ही दिनों तक श्रीपुर नगर में रहकर सीताजी अयोध्या वापस गईं। हनुमान ने अपनी बहन को बहुत कीमती वस्तुयें भेंट में देकर खूब ही भावभरी विदाई दी। - एक बार देशभूषण-कुलभूषण केवली भगवंत अयोध्या पधारे। वंशगिरि पर्वत पर स्वयं ने जिनका उपसर्ग दूर किया था, उन मुनि-भगवंतों के अयोध्या पधारने से राम-लक्ष्मण-सीता को अतिआनन्द हुआ। त्रिलोकमंडन हाथी के ऊपर बैठकर सभी उनके दर्शन करने गये। उनकी वाणी में अपने पूर्व भवों की बात सुनकर भरत को वैराग्य हो गया, इससे उसने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली; उसकी माता कैकेई ने भी दीक्षा ले ली; . भरत के पूर्वभव के मित्र त्रिलोकमंडन हाथी ने भी वैराग्य पाया और सम्यग्दर्शन पूर्वक उसने श्रावक के व्रत धारण किये। सीता की अग्निपरीक्षा और दीक्षा राम-लक्ष्मण अयोध्या में राज्य कर रहे हैं। अयोध्या की प्रजा भी सभी प्रकार से सुखी है, परंतु मानो पुण्य की अध्रुवता साबित करती हुई एक अफवाह घर-घर में फैल रही है कि सीताजी रावण की लंका में बहुत दिन रहीं और राम ने उन्हें वापिस रख लिया – ये ठीक नहीं किया। उनके ही अनुसार दूसरे दुष्ट लोग भी करने लगे हैं। नगरजनों के द्वारा ये अपवाद सुनकर राम ने अपयश के भय से गर्भवती सती सीता का त्याग कर उसे वन में भेज दिया। जिस सती सीता को रावण उठाकर ले गया था, उसे उससे भी अधिक दुःख तब हुआ, जब राम ने उसका त्याग किया। वैराग्य वंत धर्मात्मा सीता घोर जंगल में
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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