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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७६ ___ अंजना – “हाँ बेटी सीता ! जीवन में सारभूत यही है। एक तो असारता से भरा हुआ ये संसार और उसमें भी अपना (स्त्रियों का) जीवन....इसमें तो पद-पद पर कैसी-कैसी पराधीनता है ! फिर भी ऐसी स्त्री पर्याय में अपने को ऐसे जैनधर्म की और सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, ये भी अपनी निकटभव्यता और परम सद्भाग्य है।" सीता “अहा, माँ ! आज आप जैसी धर्मात्मा माता के मिलन से मुझे जो परम आह्लाद हुआ है, उसकी क्या बात करूँ ! चैतन्य की अद्भुतता और साधर्मी धर्मात्मा का संग, जगत के सब दुखों को भुला देते हैं और आत्मा का महान आनन्द देते हैं। माता, वन में आपके साथ आपकी सखी वसंतमाला रहती थी, वह कहाँ है ?" अंजना “देवी ! उसने तो बालक हनुमान को उसके पिता को सौंपकर तुरन्त वैराग्यपूर्वक दीक्षा ले ली थी। मेरा वनवास देखकर उसे संसारी जीवन से एकदम विरक्तता आ गई थी। हे सीता ! मुझे भी उसके साथ ही दीक्षा लेने की परम उत्कंठा थी, परंतु इस हनुमान के स्नेहरूपी बंधन को मैं तोड़ न सकी। लेकिन अब मैंने निर्णय किया है कि! जब तुम दीक्षा लेकर अर्जिका बनोगी, तब मैं भी संसार का स्नेह-बंधन तोड़कर जरूर दीक्षा लूँगी और अर्जिका का जीवन जीकर इस तुच्छ स्त्री पर्याय का सदा के लिए अंत करूँगी।" सीता – “वाह माता ! आपकी भावना अलौकिक है। अभी भी आपका जीवन संसार से विरक्त ही है। मैं भी उस धन्य घड़ी की राह देख रही हूँ कि जब संसार का स्नेह छोड़कर अर्जिका बनूँ !". अंजना – “देवी ! धन्य है तुम्हारी भावना ! हम स्त्री पर्याय में केवलज्ञान और मुनिपद तो नहीं ले सकते, फिर भी सम्यग्दर्शन के प्रताप से हम भी पंच परमेष्ठी के मोक्ष-पंथ में चल रहे हैं !" सीता- “हाँ माता ! सम्यग्दर्शन भी कैसी महान अलौकिक वस्तु है ! सम्यक्त्व के साथ आठ अंगों से अपना जीवन कैसा शोभ रहा है ?"
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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