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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७५ अंजना ने कहा – “बेटी सीता ! साधर्मी भाई-बहन संकट के समय में एक-दूसरे की सहायता करें, इसमें क्या आश्चर्य है ? उसमें भी हनुमान का हृदय तो अति कोमल है; वह स्वयं वन में जन्मा है ना; अत: किसी का दुःख देख नहीं सकता, इसलिए सभी इसे पर-दुःख भंजक' कहते हैं।"
सीता तो हनुमान के गुनगान सुनती-सुनती अंघाती भी नहीं थी। भाई की प्रशंसा बहन को आनंद उपजावे - इसमें क्या आश्चर्य है ?
- अंजना कहती है – “हे देवी सीता ! तू भी धर्मात्मा है, तेरा शील जगत में प्रसिद्ध है; तेरे जैसी गुणवान धर्मात्मा बहन हनुमान को मिली, ये तो प्रशंसनीय है। धर्मात्मा भाई-बहन की ऐसी सरस जोड़ी देखकर मेरा हृदय शांति पाता है।"
सीता को यहाँ बहुत अच्छा लगता है, अयोध्या नगरी की तो याद भी नहीं आती । अंजना के साथ बारम्बार आनन्द से धर्म चर्चा करती है। दोनों माँ-बेटी का हृदय दो सखियों के समान एक-दूसरे के साथ खूब हिल-मिल गया है। सीता और अंजना, अंजना और सीता.... दोनों ने वनवास भुगता है, दोनों के जीवन में चित्र-विचित्र प्रसंग बने हैं, दोनों चरमशरीरी पुत्रों की माता हैं, दोनों सखी जिनधर्म की परम भक्त हैं, दोनों सखियाँ महान सती धर्मात्मा और आत्मा को जानने वाली हैं।
- (वाचक ! ऐसी महान दोनों सखियों ने कैसी मजे की धर्म चर्चा की होगी- यह जानने की तुम्हें भी लालसा होती होगी। तो चलो ! हम उसका थोड़ा स्वाद चख लें।) सीता-अंजना की धर्म चर्चा
सीता - "माँ अंजना ! अपना जैनधर्म कैसा महान है ! संसार में संकट की हर परिस्थिति में जैनधर्म और सम्यग्दर्शन अपने को परम शरण रूप होता है।"