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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७४
"हे राम ! आप हमारे परम मित्र हो, आप का संग छोड़ना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता; परन्तु हे देव ! जैसे आपके विरह में कौशल्या माता बेचैन थी; वैसे ही मेरी माता अंजना भी मेरे विरह में बेचैन होंगी और प्रतिदिन मुझे याद करती होंगी, इसलिए मुझे जाने की आज्ञा दीजिये । "
सीता ने कहा - " बन्धु हनुमान ! तुम मेरे भाई हो.... लंका में रावण के वन के बीच आकर तुमने मुझे रघुवीर के कुशल समाचार दिये थे और ११ दिन के उपवास के पारने में मुझे भोजन कराया था । तबसे तुम मेरे धर्मभाई बने हो । मैंने तुम्हारी अंजना माता को कभी देखा नहीं । मैं. अंजना माता को अपनी नजरों से देखना चाहती हूँ; इसलिए मैं भी तुम्हारे साथ ही चलूँगी।"
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हनुमान ने कहा - "वाह बहन ! तुम्हारे जैसी सती धर्मात्मा हमारे घर में पधारे.... ये तो महाभाग्य की बात है । माँ अंजना आपको देखकर अति ही प्रसन्न होंगी । "
दो सखी : सीता और अंजना का मिलन
इसप्रकार हनुमान सीताजी को साथ में लेकर कर्णकुंडलनगरी पहुँचे। सीताजी का भव्य सम्मान किया गया । अंजना माता को देखते ही सीता उससे उसकी पुत्री के समान गले लग गयी। हनुमान ने भी माता को वंदन करके कहा
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" माता ! ये महासती सीताजी अयोध्या की राजरानी और मेरी धर्म बहन हैं।"
अंजना ने कहा - "वाह बेटी सीता ! तुझे देखकर बहुत आनन्द हुआ - ऐसा कहती हुई अंजना ने सीता और हनुमान दोनों पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। सभी एक दूसरे से मिलकर अत्यंत प्रसन्न हुए। "
सीता ने कहा – “माँ, आप मेरी भी माता हो । यह हनुमान मेरा
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धर्म भाई है; इसने मेरे ऊपर बहुत उपकार किया है। "