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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७३ - ऐसी सती सीता को वंदन किया। भाई भामण्डल भी अपनी बहन को देखकर आनन्दित हुआ और जब हनुमान ने आकर सीता को वंदन किया, तब अत्यंत प्रसन्नता से सीता ने कहा - “अहो, वीर ! तुम तो हमारे धर्म के भाई हो। तुम्हीं ने यहाँ आकर मुझे श्री राम का संदेश देकर जीवित किया था। भाई हो तो ऐसा हो !" इसप्रकार सीताजी ने हनुमान के प्रति अति वात्सल्य बताया। वाह साधर्मी प्रेम ! तेरी महिमा तो सगे भाई-बहन से भी अधिक है। . सीता सहित श्री राम, रावण के महल में शांतिनाथ प्रभुजी के मंदिर में आये। प्रभु का दर्शन कर शांतिचित्त से ध्यान किया और सामायिक की। विविध प्रकार से शांतिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति की - “अहो प्रभो ? आप राग-द्वेष रहित परम शान्तदशा को प्राप्त हो, जिसमें परभावों का आश्रय नहीं, केवल निजभाव का ही आश्रय है - ऐसी शिवपुरी आपने साथ ली है।" राम के साथ में देवी जानकी (सीता) भी भावभीने चित्त से वीणा जैसे मधुर स्वर से प्रभु की स्तुति करने लगी। लक्ष्मण, विशल्या, हनुमान, भामण्डल वगैरह भी खूब आनन्द से जिन-भक्ति में भाग लेने लगे और मोर के समान नाच उठे ? - अहो, रावण की लंका में, राम-हनुमान जैसे चरमशरीरी जीवों द्वारा शांतिनाथ भगवान की अद्भुत भक्ति का ये प्रसंग देखकर, जिनमहिमा से अभिभूत होकर अनेक भव्यजीवों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया। वास्तव में जीवों को एक जैनधर्म ही शरण और शांति देने वाला है। धन्य है जैनधर्म! और धन्य हैं इसके सेवक !! लंका में कुछ समय रहकर श्री राम-लक्ष्मण-सीमा वगैरह सभी अयोध्यापुरी आये। हनुमान वगैरह भी साथ ही थे। अयोध्या नगरी में आनन्द-आनन्द छा गया। थोड़े दिनों बाद हनुमानजी ने अपनी नगरी को जाने के लिए विदाई माँगते हुये श्री राम से कहा -
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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