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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७२ ने युद्ध नहीं करने और सीता को वापिस सौंप देने के लिए बहुत समझाया, परन्तु रावण नहीं माना, युद्ध में लक्ष्मण ने रावण को थका दिया। अंत में रावण ने चक्र छोड़ा, परन्तु उसी चक्र द्वारा लक्ष्मण ने रावण का शिर छेद डाला। इस युद्ध में भी हनुमान ने बहुत पराक्रम दिखाया।
यद्यपि राम और हनुमान जैसे धर्मात्माओं को युद्ध करना जरा भी प्रिय नहीं था, परन्तु राज्य-भोग के बीच में रहने वाले धर्मात्माओं की ऐसी कषाय परिणति सर्वथा नष्ट न होने से, सीता को वापिस लेने के लिये ऐसा युद्ध करना पड़ा। रावण की मृत्यु होते ही युद्ध बंद हुआ। राम ने मंदोदरी वगैरह को धीरज बँधाई, रावण के अंतिम संस्कार कराये तथा इन्द्रजीत, कुंभकर्ण, मेघनाथ वगैरह को मुक्त किया....सत्पुरुष बैर को कभी खींचते नहीं।
एक तरफ युद्ध पूरा हुआ और दूसरी तरफ उसी दिन अनंतवीर्य केवली ५६००० मुनियों के संघ सहित लंका में पधारे और उसी समय दूसरे द्वीप में जन्मे एक तीर्थंकर का जन्माभिषेक करके देव लंका में अनंतवीर्य केवली के दर्शन करने आये और केवलज्ञान का महान उत्सव किया। भगवान ने संसार की चारों गतियों के दुःखों का वर्णन करके मोक्ष सुख को साधने का उपदेश दिया। अहो, हितकारी मधुर वाणी में उनका धर्मोपदेश सुनकर रावण के भाई कुंभकर्ण तथा इन्द्रजीत आदि पुत्रों ने तथा मंदोदरी आदि रानियों ने संसार छोड़कर दीक्षा ले ली। उस दिन मंदोदरी के साथ ४८००० दूसरी स्त्रियाँ अर्जिका हुईं। वाह, कैसा धर्मकाल !
श्री राम-लक्ष्मण ने लंका में प्रवेश किया। राम और सीता का मिलाप हुआ। जैसे अनुभूति में सम्यक्त्व के साथ शांति का मिलन होने से आत्माराम आनंदित हुआ। वैसे ही राम और सीता का मिलन होने से दोनों के नेत्रों में से आनंदमय आँसू झरने लगे। देव भी इस दृश्य को देखकर प्रसन्न हुए। धन्य सती सीता ! धन्य तेरा शील ! और धन्य तेरा धैर्य !
लक्ष्मण ने आकर भवसागर से तरने वाली और मोक्ष की साधिका