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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५८ फँसे हुये देखकर तुरन्त ही हनुमान नीचे उतरे; विद्या के बल से घनघोर पानी की वर्षा की। जैसे मुनिराज परम क्षमा द्वारा क्रोधाग्नि को बुझाते हैं, वैसे ही मुनिभक्त हनुमान ने वन की आग बुझा डाली।
इस तरह मुनिवरों का उपसर्गदूर करके हनुमान उनकी पूजा-स्तुति कर रहे थे। उसी समय तीनों राजकन्यायें वहाँ आ पहुँची और कहने लगीं
“हे तात ! आपने हमें इस वन की आग से बचाकर बड़ा उपकार किया। हम लोग यहाँ श्रीराम के दर्शनों की इच्छा से विद्या साधते थे, जिसकी सिद्धि में बारह वर्ष से भी अधिक समय लगता, परन्तु ऐसे उपसर्ग के बीच भी हम निर्भय रहे, इससे वह विद्या हमको आज १२वें दिन ही सिद्ध हो गई। हमारे निमित्त से मुनिराज पर उपसर्ग हुआ, परन्तु मुनिराज के प्रताप से हमारी भी रक्षा हो गई। अहो बंधु ! तुम्हारी जिनभक्ति और मुनिभक्ति वास्तव में अद्भुत है।"
हनुमान ने उन कन्याओं को श्री राम का परिचय दिया तथा कहा
“अब तुम्हें श्री राम के दर्शन होंगे और तुम्हारा मनोरथ सफल होगा; निश्चयवंत जीव को उद्यम द्वारा स्वकार्य की सिद्धि होती ही है।" ___– ऐसा कहकर हनुमान वहाँ से चल दिये।
अब लवणसमुद्र के बीच स्थित त्रिकुटाचल पर्वत (जिस पर रावण की लंका नगरी है) पर हनुमान आ पहुँचे। वहाँ रावण के मायामयी यंत्र के कारण हनुमान की सेवा वहीं रुक गई। यहाँ हनुमान विचार में पड़ गये – “अरे, ये क्या हुआ ? विमान आगे क्यों नहीं चलता ? क्या नीचे कोई चरमशरीरी मुनिराज विमाजमान हैं ? या कोई भव्य जिनमन्दिर है ? या फिर किसी शत्रु ने विमान रोका है ?"
मंत्री ने खोजकर कहा – “हे स्वामी ! ये तो लंका का मायामयी कोट है; ये माया की पुतली सर्वभक्षी है, उसके मुख में प्रवेश करनेवाला व्यक्ति कभी बाहर निकल नहीं सकता। चारों ओर हजारों फणधर सर्प मुँह फाड़-फाड़कर फण ऊँचा कर-करके भयंकर फुकार रहे हैं, ऊपर से विष समान अग्नि के फुलिंगों की बरसात हो रही है। दुष्ट मायाचारी रावण की