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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५७
हनुमान की बात सुनकर राजा महेन्द्र अपने पुत्र एवं रानी सहित, प्रथम तो पुत्री अंजना के पास गये और उसे हनुमान के महा पराक्रम की सभी बात बताई। अंजना तो ये सुनकर तथा अपने माता-पिता एवं भाई के मिलाप से अत्यंत प्रसन्न हुई । इससे भी अधिक प्रसन्नता उसे यह जानकर हुई कि मेरा पुत्र, मेरे ही जैसी एक सती सीता - धर्मात्मा की सहायता करने जा रहा है ! अहो, ये सीता कैसी होगी? एक समय मैं भी वन में थी, उसी प्रकार आज सीता भी राम से दूर रावण के उद्यान में पड़ी है । यद्यपि रावण अति बलवान है, तो भी मेरा पराक्रमी पुत्र हनुमान अवश्य ही सीता के पास पहुँचेगा और उसे छुड़ाकर लायेगा ।
वहाँ से राजा महेन्द्र श्री राम की सेवा में किष्किंधानगरी पहुँचे । अहो, देखो तो पुण्य का प्रताप ! कि जिसके कारण भूमिगोचरी मनुष्य की भी बड़े-बड़े विद्याधर राजा और देव सेवा करते हैं, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि हे जीवो ! तुम पापकार्यों को छोड़कर देव-गुरु-धर्म की सेवा के सत्कार्यों में लगो ।
बीच में एक और घटना
दधिमुख नगरी के बाहर एक घोर वन में दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आठ दिन से ध्यान में खड़े थे। उसी वन में थोड़ी दूर पर तीन राजकुमारियाँ । मनोऽनुगामिनि विद्या साध रही थीं, उन्हें आज बारहवाँ दिन था । मोक्षमार्ग में जैसे वीतरागी तीन रत्न शोभित होते हैं, वैसे ही निर्मल चरित्रवाली ये तीन कन्यायें वन में सुशोभित हो रही थीं। अंगारक नाम का दुष्ट विद्याधर उन कन्याओं पर मोहित होकर उनके साथ विवाह करना चाहता था, परंतु राजकन्याओं के मन में तो श्री राम ही बस रहे थे । अंगारक विद्याधर ने कन्याओं को वश करने हेतु क्रोधपूर्वक वन में आग लगाई। वन में ध्यानस्थ खड़े दो मुनियों एवं तीन कन्याओं के ऊपर अग्नि का घोर उपद्रव हुआ, परन्तु उपद्रवों के बीच भी मुनिराज डिगे नहीं और न डिगीं राजकन्यायें । सब अपनी-अपनी साधना में मस्त थे ।
इतने में ऊपर से हनुमान का विमान निकला, मुनियों को आग में