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___ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५६ था....वहाँ गुफा में मुनिराज के दर्शन के प्रताप से मेरी माता को आश्वासन मिला था। मेरा जन्म भी वन में ही हुआ था। अरे दु:ख के कारण शरण में आई हुई मेरी माता को नहीं रखा – उन्होंने महेन्द्र राजा का गर्व मैं उतारूँ।"
- ऐसा विचार कर हनुमान ने रणभेरी बजाई। अचानक रणभेरी सुनते ही राजा महेन्द्र लश्कर लेकर लड़ने आया, उन्होंने हनुमान के ऊपर बाण चलाये; परन्तु जैसे मुनिवरों को कामबाण नहीं लगते, वैसे ही हनुमान को एक भी बाण नहीं लगा। महेन्द्र राजा ने क्रोध पूर्वक भयंकर विक्रिया करके हनुमान के ऊपर हमला किया, परन्तु हनुमान जरा भी विचलित नहीं हुये। एकाएक अपने रथ से छलाँग मारकर हनुमान राजा महेन्द्र के रथ में कूद पड़े और उन्हें बाहुपाश में पकड़कर अपने रथ में ले आये; जैसे मुनिराज विषय-कषाय को जीत लेते हैं, वैसे ही क्षणमात्र में वीर हनुमान ने महेन्द्र राजा को जीत लिया।
हनुमान की वीरता देखकर महेन्द्र राजा ने कहा - — “हे पुत्र ! तेरा प्रताप मैंने जैसा सुना था, वैसा आज प्रत्यक्ष देखा। हमारा अपराध क्षमा करो, तुम चरमशरीरी महाप्रतापी हो, तुमने हमारे कुल को उज्ज्वल किया....हमारे कुल में मानो गुणों का कल्पवृक्ष ही प्रगटा है !" - इसप्रकार बहुत प्रशंसा करके प्रेमपूर्वक उसे छाती से लगा लिया, तथा बारम्बार उसका मस्तक चूमने लगे।
तब हनुमान ने भी हाथ जोड़कर उनसे क्षमा माँगी....महापुरुष बिना कारण वैर नहीं रखते। देखो, क्रोध के स्थान पर क्षणभर में प्रेम उमड़
आया। जीवों के परिणाम एक क्षण में कहाँ से कहाँ पलट जाते हैं। क्रोध जीव का स्वभाव नहीं है - इस कारण वह अधिक काल तक नहीं टिक सकता। जीव का स्वभाव क्षमा है.... ऐसा जानकर हे जीवो! तुम क्षमा धारण करो!
हनुमान ने राजा महेन्द्र से सभी बातें कीं और उन्हें श्री राम की सेवा में जाने को कहकर स्वयं लंकापुरी की तरफ गमन किया।