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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५५ तुम तो जैनधर्म को जानने वाली हो, अत: आत्मभावना भाना। हम जल्दी से आकर तुम्हें रावण के हाथों से छुड़ा लेंगे।" - इसप्रकार हनुमान से कहते ही राम का हृदय गद्गद् हो गया। हनुमान ने कहा – “हे देव ! आपकी आज्ञा के अनुसार मैं सीता माता को कहूँगा और उनका संदेश लेकर मैं शीघ्र ही वापिस आऊँगा; तब तक आप भी धैर्य रखना।” | . - इसप्रकार कहकर श्री हनुमान ने श्री राम से विदाई ली और पंच परमेष्ठी के स्मरण पूर्वक आकाशमार्गसे प्रयाण किया। श्री राम आकाशमार्ग से जाते हुए हनुमान को तब तक देखते रहे, जबतक कि वे दृष्टि से ओझल नहीं हो गये। हनुमान का लंका की तरफ प्रयाण - अंजनापुत्र हनुमान आकाशमार्ग से लंका की तरफ जा रहे हैं, उनका चित्त बड़ा प्रसन्न है – “वाह ! श्रीराम और सीता जैसे साधर्मी धर्मात्माओं की सहायता करने का ये अवसर मिला है। साधर्मी के ऊपर संकट कैसे देखा जा सकता है ? मैं शीघ्र ही ये संकट दूर कर राम-सीता का मिलन कराऊँगा।" - इसप्रकार सीता के दर्शन के लिए जिसका चित्त उत्सुक है- ऐसे पवनपुत्र हनुमान पवन से भी अधिक वेग से जा रहे हैं....अहो ! ऐसा लगता है कि अपनी जानकी बहन को लेने के लिए मानो भाई भामण्डल ही जा रहा हो ! रास्ते में विमान से महेन्द्रपुरी नगरी दिखी। हनुमान ने अचानक विमान रोका। (पाठको ! जैनधर्म की कहानियाँ, भाग ४ की बात तुम्हें याद होगी कि हनुमानजी की माता अंजना को उसकी सास ने कलंकित समझकर घर से निकाल दिया था, तब वह अपने पीहर सहारा माँगने आई थी। तब उसे पिता महेन्द्र राजा ने भी कलंकनी समझकर नगर से निकाल दिया था; ये वही नगरी है, उसे देखते ही हनुमान को विचार आया।) “अरे, मेरे नाना महेन्द्रकुमार ने बिना विचारे तिरस्कार करके मेरी माता को महाकष्ट में डाला था, मेरी माता को वन में जाकर रहना पड़ा
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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